________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
द्वितीय अध्ययन पंचमोद्देशक ]
[ १६५ :
प्रकार लोक के स्वरूप को जानने वाला वह प्राणी यह समझ लेता है कि कामभोग दुःखों के कारण हैं
और इनके त्याग में ही सुख और शान्ति छिपी हुई है। वह यह भी जानता है कि विषयासक्त प्राणी विषयों के चक्र में पड़कर पुनः पुनः संसार में परिभ्रमण करता है और उसके लिए विषयों का त्याग अत्यन्त दुष्कर बनता है अतएव उसकी भवपरम्परा बढ़ती जाती है । ___जबतक अपनी स्थिति का ज्ञान नहीं होता तबतक प्रायः धर्म में प्रवृत्ति नहीं होती अतः सूत्रकार उपदेश करते हुए फरमाते हैं कि हे मनुष्यो ! तुम्हें असीम पुण्योदय से चिन्तामणि रत्न के समान यह मानव-जीवन प्राप्त हुआ है । यह मानव-जीवन सौभाग्य का सबसे श्रेष्ठ वरदान है । इसी जीवन में ज्ञान, दर्शन और चारित्र का सम्पूर्ण विकास हो सकता है। यही जीवन सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ-मोक्ष की प्राप्ति का साधन है । इसी भव में मोक्ष प्रकट हो सकता है, अन्यत्र नहीं। देवता भी जिस मानव-जन्म को प्राप्त करने के लिए तरसते हैं वह तुम्हें अनायास ही प्राप्त हो गया है । इस दुर्लभ स्वर्ण अवसर को प्राप्त करके उसे व्यर्थ ही विषय-कपायों में ही व्यतीत नहीं कर देना चाहिए । हे प्राणियों ! इस मनुष्य जन्म की दुर्लभता को समझो। यह सुन्दर सुयोग बारबार नहीं मिलने वाला है । प्रबलतर पुण्यों के पुंज के पुंज जब एकत्रित होते हैं तब यह दुर्लभ जन्म प्राप्त होता है । संसार में हम अनेक जीव-योनियाँ प्रत्यक्ष देखते हैं। करोड़ों तरह की वनस्पति-रूप योनि, लाखों कीटपतंग-कीड़े मकोड़े लट आदि की योनियाँ हैं । आगे बढ़ने पर गाय, भैंस, बकरी, सिंह व्याघ्र, आदि चौपद और कबूतर, चिड़ियाँ, तोता, मैना आदि २ पक्षी असंख्य प्रतीत होते हैं। इन जीव-योनियों का तो प्रत्यक्ष अनुभव होता है परन्तु असंख्य योनियाँ ऐसी हैं जो अत्यन्त सूक्ष्म हैं । इन असंख्य योनियों में यह जीवात्मा अनन्तकाल तक रहा है । अव्यवहार राशिगत निगोद के भव में इस जीव ने अनन्त समय गंवाया है। वहाँ नियतिवशात् जन्म-मरण की, भूख प्यास की तथा सर्दी गर्मी की वेदनाएँ सहन करते करते अनन्त कर्मों की अकामनिर्जरा हो गई । इससे जीव की शक्ति अंशतः प्रकट हुई और वह व्यवहार राशि में आया । वहाँ चिरकाल तक रहने के बाद इस जीव ने अनन्त पुद्गल-परावर्तन पूरे किये । इसके पश्चात् सूक्ष्म अवस्था से बादर अवस्था में आता है। इस अवस्था में पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि पाँच एकेन्द्रिय स्थावरों के रूप में चिरकाल पर्यन्त रहता है। तदनन्तर अकाम निर्जरा के प्रभाव से अनन्त पुण्य वृद्धि होनेपर कहीं त्रस पर्याय की प्राप्ति होती है । इसके पश्चात् निरन्तर अनन्त अनन्त पुण्य की वृद्धि होती जाय तो त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, व संज्ञी पंचेन्द्रिय हो पाता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय होने पर भी नरकादि में जावे तो अनेकों व्यथाओं को दीर्घकाल तक भोगता है । इस प्रकार भव-भ्रमण करते २ अनन्तानन्त-पुण्य का संचय होने पर कहीं मनुष्य भव प्राप्त होता है । इस प्रकार विचारने से मालूम होता है कि संसार की असंख्य योनियों से बचकर सर्वश्रेष्ठ मनुष्य-योनि का मिल जाना कितना सुन्दर सुयोग है ! कितनी अधिक सौभाग्य की निशानी है !
तात्पर्य यह है कि अनन्त आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए मनुष्य-भव ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। पुण्योदय से यह साधन प्राप्त हुआ है ऐसी स्थिति में इस स्वर्ण-अवसर का सदुपयोग करना चाहिए । बारबार ऐसे अवसर प्राप्त नहीं होते । अगर अवसर चूक गये तो हाथ मसल कर पछताना पड़ेगा। एक बार अगर यह अवसर हाथ से निकल गया तो अनन्त काल तक भव-भ्रमण करके असह्य यातनाएँ सहन करनी पड़ेगी। इस स्वर्ण अवसर के निकल जाने पर पुन: उसकी प्राप्ति कितनी सुदुर्लभ है यह समझाने के लिए शास्त्रकारों ने दस दृष्टान्तों की योजना की है । वह दृष्टान्त इस प्रकार हैं
विप्रः प्रार्थितवान् प्रसन्न मनसः श्री ब्रह्मदत्तात् पुरा,
क्षेत्रेऽस्मिन्भरतेऽखिले प्रतिगृहं मे भोजनं दापय ।
For Private And Personal