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• चतुर्थ अध्ययन द्वितीयोदेशक ]
इसी तरह जो संवर और निर्जरा के कारण हैं वे ही कर्मबन्धन के कारण हो जाते हैं। साधुत्व और दस प्रकार की साधु सामाचारी का अनुष्ठान निर्जरा का कारण है तो भी अध्यवसायों की मलिनता और कपट के कारण वह भी कर्मबन्धन का कारण हो जाता है। जिस प्रकार उदायन राजा को मारने के लिए एक नाई ने कपटपूर्वक साधुत्व अङ्गीकार किया था। ऐसा कपटपूर्ण संयम और अध्यवसायों की विकृति के कारण संवर के स्थान भी आस्रव के स्थान हो जाते हैं। इसलिए कहा है कि "जे परिसवा ते आसवा"।
उपर्युक्त दोनों पद विधिरूप से कहे गये हैं। इसी बात को अब निषेधरूप से फरमाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि “जे अणासवा ते अपरिसवा" अर्थात्-जो आस्रव रूप नहीं है वे व्रतादि भी कर्मोदय से अशुभ अध्यवसाय वाले के लिए कर्म की निर्जरा के कारण नहीं होते हैं । व्रतादि कर्म-निर्जरा के कारण हैं तो भी अध्यवसाय की अशुभता के कारण वे निर्जरा के कारण नहीं होते हैं । इसी तरह “जे अपरिसवा ते अणासवा" जो अपरिस्रव-कर्म के उपादान कारण हैं वे कदाचित् शासन (प्रवचन) के उपकार आदि शुभ अध्यवसाय पूर्वक किये जाने पर कर्म-बन्धन रूप नहीं होते हैं। इस सम्बन्ध में चौभंगी इस प्रकार कही गई है:
(१) जो श्रास्रव हैं वे परिस्रव हैं । (२) जो आस्रव हैं वे अपरिस्रव हैं। (३) जो अनास्रव हैं वे परिस्रव हैं।
(४) जो अनास्रव हैं वे अपरिस्रव हैं। इस चौभंगी का प्रथम भंग समस्त संसारी जीवों में पाया जाता है। क्योंकि जो कर्म के श्रास्रव हैं वे ही दूसरों के लिए निर्जरा के कारण हैं यह समस्त चतुर्गत्यापन्न जीवों में पाया जाता है। प्रत्येक संसारी जीव के प्रतिक्षण आस्रव और संवर होता रहता है। द्वितीय भंग शून्य है क्योंकि जहाँ श्रास्रव है वहाँ निर्जरा अवश्यम्भावी हैं । जहाँ बन्धन है तो उसका अलग होना भी सिद्व ही है। तृतीय भंग अयोगिकेवलियों में पाया जाता है क्योंकि उनके प्रास्रव तो नहीं है लेकिन परिस्रव है। चतुर्थ भंग सिद्धों में पाया जाता है। उनके न आस्रव है और न परिस्रव है। इस चौभंगी में से सूत्र में आदि और अन्त का भंग ग्रहण किया गया है । आदि व अन्त के ग्रहण से मध्यवर्ती भंगों का भी ग्रहण समझ लेना चाहिए। क्योंकि जिसकी आदि है और अन्त है उसका मध्य भी अवश्य होता ही है। अतएव आदि और अन्त भंग के ग्रहण करने से मध्य भंगों का भी ग्रहण समझना चाहिए।
- इतने विवेवन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रास्रव और संवर तथा निर्जरा का मुख्य आधार चित्तवृत्ति पर-मानसिक परिणामों की धारा पर-निर्भर है। बाह्य पदार्थ और बाह्य क्रिया-काण्ड निमित्त मात्र हैं । निमित्त उपादान की शुद्धि की प्रकटता के लिए हैं । निमित्त जब तक उपादान के उपकारी होते हैं तब तक वे ग्राह्य हैं लेकिन निमित्तों के पीछे उपादान को न भुला देना चाहिए। जब उपादान को विसरा कर निमित्तों को महत्व दिया जाता है तब धर्म केवल शुष्क क्रियाकाण्ड में ही समाप्त हो जाता है। वह जीवनव्यापी नहीं बन सकता । जब तक धर्म का व्यवहार में सर्वक्षेत्रस्पर्शी प्रयोग न हो तब तक धर्म का सच्चा रहस्य नहीं समझा गया ऐसा मानना पड़ेगा। निमित्त उपादान के उपकारी हैं अतएव ग्राह्य होते हैं । वस्तुतः उपादान की ही प्रबलता है । अतएव उपादान को-अपनी चित्तवृत्ति को-शुद्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिए । यही बात “मनः एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः" इस सूत्र में गर्भित है ।
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