Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 629
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५८६] [प्राचाराज-सूत्रम् चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाणजाइया श्रागम्म । अभिरुज्झ कायं विहरिंसु पारुसिया णं तत्थ हिसिंसु ॥३॥ संवच्छरं साहियं मासं जं न रिकासि वत्थगं भगवं । अचेलए तो चाई तं वोसिज वत्थमणगारे ॥४॥ संस्कृतच्छाया-यथा श्रुतं वदिष्यामि यथा स श्रमणो भगवानुत्थाय | संख्याय तस्मिन्हेमन्ते, अधुना प्रवजितः रीयते स्म ।।१॥ न चैवानेन वस्त्रेण पिधास्यामि तस्मिन्हेमन्ते । स पारगो यावत्कथमेतत्खल्वनुधार्मिकम् तस्य ।।२।। चतुरः साधिकान् मासान् बहवः प्राणिजातय आगत्य । आरुह्य कार्य विजह:, आरुह्य तत्र हिंसन्ति स्म ॥३॥ संवत्सरंसाधिकं मासं यन्न त्यक्तवान् वस्त्रकं भगवान् । अचेलकस्ततस्त्यागी तद् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः ।।४।। शब्दार्थ-ग्रहासुर्य-जैसा मैंने सुना है वैसा । वइस्सामि कहूँगा । जहा जैसा कि । से समणे भगवं वह श्रमण भगवान् । उहाएउद्यत विहार अङ्गीकार करके अथवा कर्मक्षय के लिए उद्यत होकर । संखाए ज्ञान प्राप्त कर । तंसि हेमन्ते उस हेमन्त ऋतु में। अहुणो पव्वइए= दीक्षा अङ्गीकार करते ही। रीइत्था विहार कर गये ॥१॥ इमेण वत्थेण=इस वस्त्र से । तंसि हेमन्ते उस हेमन्त ऋतु में । णो चेव पिहिस्सामि अपने शरीर को ढंक लंगा ऐसा विचार भी नहीं हुआ। आवकहाए यावजीवन । से पारए वह भगवान् परीपहों के पारगामी थे । तस्स एयं भगवान् का यह वस्त्र धारण । खु=निश्चय ही। अणुधम्मियं अनुधार्मिक है-पूर्व तीर्थङ्करों से आचीण है ॥२॥ साहिए चत्तारि मासे कुछ अधिक चार मास तक । बहवे पाणजाइया=बहुत से प्राणी । आगम्म-अाकर । अभिरुज्झ-चढकर । कायं विहरिंसु शरीर पर फिरने लगे--काटने लगे। तत्थ आरुसिया-शरीर पर चढ़कर । हिंसिंसु-विविध रीति से दुख देने लगे ॥३॥ संवच्छरं= एक वर्ष । साहियं मासं-और एक मास से कुछ अधिक समय तक । भगवं भगवान् ने । जं वत्थ न रिकासि-उस वस्त्र का त्याग नहीं किया । तो तत्पश्चात् । तं वत्थं उस वस्त्र को। वोसिज-छोड़कर । अणगारे अनगार भगवान् । अचेलए चाईबस्त्ररहित त्यागी हो गए ॥४॥ ____ भावार्थ-श्री सुधर्मस्वामी अपने अन्तेवासी जम्बूस्वामी को कहते हैं कि उन भगवान् वद्धमान स्वामी का जीवन-चरित्र जैसा मैंने सुना है वैसा कहूँगा । उन श्रमण भगवान् महावीर ने कर्मक्षय करने के लिए उद्यत होकर राज्य आदि को बन्धन का कारण जानकर और उनका परित्याग कर हेमन्त ऋतु में दीक्षा अंगीकार की । दीता अंगीकार करने के अनन्तर उसी समय ( तीसरे पहर में ) विहार किया ॥१॥ For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670