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[ श्रधाराङ्ग-सूत्रम
यहाँ कहने की क्या आवश्यकता है ? इस शंका का समाधान यह है कि द्वितीय उद्देशक "प्रलोभन विजय और अल्प परिहार" का है । समनोज्ञ साधु के साथ दान प्रतिदान का व्यवहार भी एक प्रकार का प्रलोभन है । असमनोज्ञ साधु के साथ का सम्बन्ध प्रलोभन कैसे है यह समझने योग्य बात है । यह निश्चित
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है कि मनोज्ञ साधु आत्माभिमुख प्रवृत्ति वाला होता है और असमनोज्ञ साधु विश्वाभिमुख प्रवृत्ति वाला होता है | असमनोज्ञ साधु आत्मा के लक्ष्य को भूलकर दुनियाँ की तारीफ का भूखा होता है । वह चाहता है कि दुनिया मेरी प्रतिष्ठा करे और मेरी तारीफ करे। वह इस आशय से दुनियाँ को खुश करने के लिए प्रवृत्ति करता है । जनरंजन करना उसका ध्येय हो जाता है इसलिए वह अंध संसार को अपनी कर्षित कर लेता है और उसके द्वारा अपनी आवश्यकता पूर्ण कर लेता है । इसलिए इसे देने में उसकी आवश्यकता की पूर्ति होती है ऐसी तो बात नहीं दिखाई देती । समनोज्ञ साधु उसे न दे तो भी उसकी आवश्यकता की पूर्ति तो हो ही जाती है। फिर विचारने की बात है कि समनोज्ञ साधु असमनोज्ञ साधु को आदरपूर्वक क्यों अशनादि दें, क्यों लें, क्यों उसके साथ सम्बन्ध रखे ? विचारने पर यह प्रतीत होगा कि इस प्रकार के व्यवहार में उसके साथ सम्बन्ध करके लोकैषणा प्राप्त करने का ही आशय हो सकता है। साधक के लिए यह प्रलोभन हानिप्रद है । इसलिए उसके संग दोष से बचने के लिए सूत्रकार आदरपूर्वक उसके साथ दान प्रतिदान व्यवहार और सेवाशुश्रूषा का निषेध करते हैं। इस प्रकार का व्यवहार रखने से असमनोज्ञ साधु की असमनोज्ञता को अनुमोदन और प्रोत्साहन मिलता है इसलिए उद्युक्तविहारी साधु शिथिलाचारियों से आदरपूर्वक लेन-देन का व्यवहार न करे ।
साथ ही सर्वज्ञ सर्वदर्शी प्रभु महावीर यह उपदेश कर रहे हैं कि मेरे कथन के आशय को बराबर समझ कर उसका पालन करो। श्राशय को भूलकर केवल अक्षरों का पालन करना हितावह नहीं है । आशय को ध्यान में रखकर असमनोज्ञ के साथ इस प्रकार का व्यवहार न करना चाहिए।
समनोज्ञ साधु का यह भी कर्त्तव्य है कि वह समनोज्ञ साधु के साथ दान प्रतिदान व्यवहार करें, उनको प्रत्येक वस्तु के ग्रहण के लिए निमंत्रण करें और उनकी प्रसंगोचित्त सेवा शुश्रूषा भी करें। ऐसा करने से पारस्परिक 'वत्सलता की वृद्धि होती है और समनोज्ञता को प्रोत्साहन मिलता है । यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि समनोज्ञ साधु को समनोज्ञ साधु के साथ ही इस प्रकार का व्यवहार रखना चाहिए।
- उपसंहार -
प्रलोभन स्वर्ण की शृङ्खला के समान है। विकास के मार्ग में ये भी अवरोध हैं। निर्भयता और आत्म-स्वातन्त्र्य ये साधक के जीवन के मुद्रा लेख है। एक तरफ संकट के कांटे हों और दूसरी तरफ प्रलोमन के पुष्प हो तो भी साधक न निराश हो, न मुग्ध बने । समभावपूर्वक पवित्र एवं निर्दोषरीति से संयम मार्ग में आगे प्रगति करना और आत्मा में लीन रहना ही साधक को इष्ट होना चाहिए।
इति द्वितीयोदेशकः
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