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नवम अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
[ ५६७
शब्दार्थ-दुविहं-दो प्रकार के कर्मों को । समिञ्च जानकर । आयाणसोयं प्रास्रव का कारणभूत इन्द्रियों के असंवर को। अइवायसोयं हिंसादि पाप को। योगं च और योग को । सव्वसो णचा सब प्रकार से जानकर । मेहावी सर्वभाव को जानने वाले । नाणी केवलज्ञानी भगवान् ने। अणेलिसं-अनन्यसदृश-अनुपम । किरियं संयमानुष्ठान का। अक्खायं= कथन किया ॥१६॥ अइवत्तियं पापरहित । अण्णाउदि अहिंसा का आश्रय लेकर । सयमन्नेसि स्वतः और दूसरों को भी। अकरणयाए पाप जनक व्यापार करने योग्य नहीं है। जस्स: जिसने । सव्वकम्मावहा सब कर्मों की मूलभूत । इत्थित्रो परिनाया=स्त्रियों का त्याग कर दिया है । से अदक्खु-वही सच्चा परमार्थदर्शी है ॥१७॥
भावार्थ-ईप्रित्यय ( कषायरहित ) और साम्परायिक ( कषाय-युक्त ) दोनों प्रकार के कर्मों को जानकर तथा कर्म के आस्रव का कारणभूत इन्द्रियों का असंवर, हिंसा आदि पाप के स्रोत और योग को जानकर सर्वभावों के ज्ञाता केवलज्ञानी भगवान् ने कर्म का उच्छेद करने वाली संयमानुष्ठान रूप क्रिया का कथन किया ॥१६॥ पापरहित-निर्दोष अहिंसा का आश्रय लेकर स्वयं तथा दूसरों को भी पापजनक व्यापार करने योग्य नहीं है ( ऐसा समझ कर तथा समझा कर स्वयं निवृत्त हुए और दूसरों को भी निवृत्त किया)। स्त्रियों के प्रति किया जाने वाला मोह सब कर्मों का मूल है यह जानकर जिसने स्त्री-मोह का परित्याग कर दिया वही सच्चा दृष्टा-परमार्थदर्शी है । ( भगवान् ने स्त्री-मोह का सर्वथा परित्याग कर दिया था अतएव वे परमार्थदर्शी हुए ) ॥१७॥ स्पष्ट होने से विवेचन की आवश्यकता नहीं है।
अहाकडं न से सेवे सव्वसो कम्म अदक्खू । जं किंचि पावगं भगवं तं प्रकुव्वं वियडं भुंजित्था ॥१८॥ पो सेवइ य परवत्थं परपाए वि से न भंजित्था। परिवजियाण उमाणं गच्छइ संखडिं असरणयाए॥१६॥ मायणणे असणपाणस्स नाणुगिद्धे रसेसु अपडिन्ने। अच्छिपि नो पमजिजानो विय कंड्यए मुणी गायं ॥२०॥
संस्कृतच्छाया-यथाकृतं न स सेवते सर्वशः कर्म अद्राक्षीत् ।
यत्किचित्पापकं भगवांस्तदकुर्वन् विकटमभुंक्त ।१८।। नो सेवते च परवस्त्रं परपात्रेऽपि स नाभुंक्त । परिवापमानं गच्छति संखण्डीमशरणतया ॥१६॥
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