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षष्ठ अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
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उस मार्ग में पराक्रम करते हैं । यहाँ यह सूचित किया है कि त्याग भी वीर ही कर सकते हैं । शक्ति के . बिना मुक्ति नहीं । शक्तिमान् ही मोक्ष मार्ग पर चल सकता है। वही उस मार्ग को तीर्थंकर के उपदेश को पचा सकता है । शक्ति सम्पन्न को ही मोक्ष का मार्ग बताया जा सकता है । वही इसका अधिकारी है । agra पौष्टिक और सुन्दर है लेकिन वह तन्दुरुस्त के लिए ही। बीमार के लिए मिष्टान्न हानिप्रद है | त्याग भी सिंहनी के दूध के समान है जो सोने के पात्र में ही टिक सकता है। वीर ही त्याग के उपदेश को पचा सकता है और उस पर अमल कर सकता है। वीर का अर्थ है आत्मभान वाला व्यक्ति - जिसमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा हो। जिसे आत्मभान और आत्म-विश्वास नहीं उसका त्याग केवल भाररूप है। त्यागरुचि, अहिंसा, विवेकबुद्धि और समाधि की इच्छा ये चार गुण जिसमें हैं वही मुक्तिमार्ग का
राधक हो सकता है । महावीर के इस मार्ग का वीरों द्वारा ही अनुसरण किया जा सकता है। पराक्रमी साधक ही इस पर चलते हुए अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं । कायर और आत्मभान को भूलकर बाह्य संसार के पदार्थों से मुग्ध बने हुए व्यक्ति इस मार्ग में ठोकरें खाते हैं और लथडाते हैं वे अपना लक्ष्य नहीं पा सकते। वीरतापूर्वक वीर के इस त्यागमार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
से बेमि से जहावि कुम्मे हरए विशिविट्टचित्ते पच्छन्नपलासे उम्मग्गं से नो लहइ भंजगा इव सन्निवेसं नो चयंति एवं एगे अगरूवेहिं कुलेहिं जाया रूवेहिं सत्ता कलुणं थांति नियाण ते न लभंति मुक्खं ।
संस्कृतच्छाया - सोऽहं ब्रवीमि तद्यथा च कूर्मों हृदे विनिविष्टचित्तो पलासप्रच्छन्नः उन्मार्गे ( उन्मज्यम् ) न लभते । वृक्षा इव सन्निवेशं न त्यजन्ति एवमेके अनेक रूपेषु कुलेषु जाता रूपेषु सक्ता करुणं स्तनन्ति निदानतस्ते न लभन्ते मोक्षम् ।
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शब्दार्थ –— से बेमि= मैं कहता हूँ । से जहावि = कि जैसे कोई । कुम्मे कनुना । हर किसी विशाल तालाब में | विशिविट्ठचित्ते = गृद्ध होकर । पच्छन्नपलासे = शैवाल से आच्छादित हो जाने से । उम्मग्गं बाहर आने का मार्ग | से= वह । नो लहइ = नहीं पाता है । भंजगा इव = वृक्षों के समान | सन्निवेसं - अपने स्थान को । नो चयंति नहीं छोड़ते हैं । एवं इसी भाँति । एगे= कितनेक व्यक्ति | अगरूवेहिं = विविध प्रकार के । कुले हिं=कुलों में । जाया = उत्पन्न होते हैं। रूहिं सत्ता-इन्द्रियों के रूपादि विषयों में आसक्त होकर । कलुणं करुण | थरांति = विलाप करते हैं । निया = कर्म से । मुक्खं छुटकारा । न लभंति नहीं पा सकते हैं।
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भावार्थ - जिस प्रकार शैवाल से आच्छादित किसी जलाशय में किसी कछुए ने दैवयोग से एक विवर में से मुँह बाहर निकाला। उसने बाहर का सुन्दर दृश्य देखा । वह पुनः अन्दर गया और अपने सम्बन्धियों में आसक्त होकर उन्हें वह दृश्य दिखाने के लिए लाया इतने में वह विवर शैवाल से अच्छादित हो गया। अब उसे बाहर आने का मार्ग मिलना अति कठिन है। इसी प्रकार संसार रूपी जलाशय में
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