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[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
एत्थ वि जाणे उवादीयमाणा जे श्रायारे न रमंति, आरंभमाणा विषयं वयंति छंदोवणीया, अज्झोववरण, प्रारंभसत्ता पकरेंति संगं (६३)
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संस्कृतच्छाया-अत्रापि जानीहि उपादीयमानान् ये आचारे न रमन्ते, आरम्भमाणा विनयं वदन्ति, छन्दोपनीताः अभ्युपपन्नाः श्रारम्मसक्ताः प्रकुर्वन्ति संगम् ।
शब्दार्थ - एत्थ वि- इस वायुकाय और शेषकाय में जो आरम्भ करते हैं, ( उनको ) । उवादीयमाणा - कर्म से बंधे हुए । जाणे हे शिष्य ! जानू । जे आयारे न रमंति= जो संयम में रमण नहीं करते हैं। आरंभमाणा आरंभ करते हुए भी । विषयं वयन्ति = अपने आपको संयमी कहते हैं । छंदोवणीया= स्वच्छंदाचारी | अज्झोववरणा = विषय में गृद्ध । श्रारंभसत्ता = हिंसादि में आसक्त होते हुए । पकरेंति संगं - पुनः पुनः कर्म बन्धन करते हैं ।
भावार्थ - हे शिप्य ! जो इन छह कायों में से एक भी काय का आरम्भ करता है वह छह कायों का आरम्भ करने वाला है ऐसा समझ । 'वह प्रारम्भ करता हुआ आठों प्रकार के कर्म- बन्धन से लिप्त होता है' यह जानकर जो पांच प्रकार के चारों में रमण नहीं करते हैं, आरम्भ करते हुए भी अपने आपको संयमी कहते हैं, जो स्वच्छंदाचारी हैं, विषयादि में आसक्त हैं और आरम्भ में लीन हैं। ऐसे प्राणी बारबार कर्म बन्धन करते हैं और संसार - परम्परा बढ़ाते हैं ।
से वसुमं सव्वसमण्णागयपराणेणं, अप्पाणेणं श्रकरणिज्जं पावं कम्मं पोरस (६४)
संस्कृतच्छाया—स वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना करणीयं पापं कर्म नान्वेषयेत् । शब्दार्थ - - से वसुमं वह संयमधनी साधक । सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं–सर्व प्रकार से सावधान और समझ युक्त । अप्पाणे आत्मा । करणिज्जं - नहीं करने योग्य | पावं कम्म = पापकर्मों को । गो एसि=न करे ।
भावार्थ – संयमधनी साधक सर्वथा सावधान और सर्वप्रकार से समझ युक्त होकर नहीं करने योग्य पापकर्मों में यत्न न करे ।
भावार्थ - हिंसा के दुष्परिणामों को जानकर बुद्धिमान् पुरुष स्वयं छः जीव- निकाय की हिंसा करे नहीं, करावे नहीं और करते हुए दूसरों को अच्छा समझे नहीं । इस आरम्भ के सभी भेदों में जिसको विवेक होता है जिसने ज्ञ परिज्ञा से आरम्भ को जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग किया है वही
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