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चतुर्थ अध्ययन तृतीयोदेशक ]
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होते हैं । इसलिए मिथ्यावादियों के संसर्ग से बचने के लिए साधक को सूचना की गई है कि उन परवादियों को धर्म के असली स्वरूप से बाह्य जानकर उनकी उपेक्षा करनी चाहिए। उनके व्यवहारों और कथन पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह मिथ्यावादियों का परिचय करना, उनका संस्तव करना इत्यादि कृत्य भी वर्जनीय हैं। जो साधक धर्म से बहिर्मुख वादियों के प्रति उपेक्षा धारण करके आत्मस्वरूप में मग्न रहता है वही विद्वानों का शिरोमणि है। आत्माभिमुख प्रवृत्ति करना ही सच्ची विद्वत्ता है।
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मध्यावादियों की प्रवृत्ति की ओर उपेक्षा रखने का उपदेश देने के अनन्तर सूत्रकार अब यह बताते हैं कि ज्ञान की सफलता किस में है ? और किस मार्ग में प्रवृत्ति करनी चाहिए ? व्यक्ति सावद्य प्रवृत्ति रूप आरम्भ को दुख का कारण समझ कर उसका त्याग करते हैं-- श्रारम्भ से निवृत्ति करते हैं वे ही विद्वान हैं - यही विद्वत्ता है। ज्ञान का फल विरति कहा गया है । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि साँस लेने में, चलने-फिरने में इत्यादि प्रत्येक कार्य में हिंसा तो होती ही है तो सर्वथा आरम्भ का त्याग कैसे हो सकता है ? और निरारम्भी कैसे बना जा सकता है ? क्या निरारम्भी होने के लिए मर जाना चाहिए ?
इस प्रश्न का समाधान यह है कि निरारम्भी बनने के लिए मरने की कोई आवश्यकता नहीं है । इसको समझने के लिए आरम्भ क्या है, वह कैसे होता है, कैसे नहीं होता है, यह समझने की आवश्यकता है। आरम्भका अर्थ है - उपयोगरहित क्रिया । जो क्रिया उपयोग के बिना की जाती है वह आरम्भ का कारण है और जो क्रिया उपयोग सहित की जाती है वह आरम्भ का कारण नहीं होती है । यही कारण है कि भगवती सूत्र में आरम्भी - अनारम्भी की चर्चा में अप्रमत्तसंयत और शुभ योगी ( उपयोगी ) प्रमत्तसंयत को भी निरारम्भी कहा गया है। अगर आरम्भ का अर्थ हिंसा किया जाता है तो सूक्ष्म कायिक हिंसा तो तेरहवें गुणस्थान तक होती है अतः वहाँ भी आरम्भ मानना पड़ेगा लेकिन ऐसा नहीं हो सकता । भगवती सूत्र में श्रप्रमत्तसंयत को भी निरारम्भी कहा गया है तो तेरहवें
स्थान वालों का तो कहना ही क्या ? इससे यह सिद्ध होता है कि आरम्भ शब्द का अर्थ है -उपयोगहि क्रिया । जो क्रियाएँ साधारण रूप से शुभ कही जा सकती हैं वे भी अगर अनुपयोग से की जाती हैं तो आरम्भ का कारण होती हैं। उदाहरण के लिए प्रतिलेखन करने में वस्त्रादि का संचालन होता है लेकिन यदि उसमें उपयोग हैं तो वह क्रिया शुभ है और उपयोग के बिना प्रतिलेखना करने वाला काय का विराधक कहा गया है। जैसा कि कहा है:
पुढंढवी - श्राउकाए तेऊ- वाऊ-वणस्सइ-तसां ।
पडिले हापमत्तो छरहं विराहो होइ ||
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपयोग-रहित क्रिया ही आरम्भ है । दशवैकालिक सूत्र में भी यही कहा गया है कि:
जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जय सए । जय भुजतो भासंतो पावकम्मं न बंधइ ॥
यतना — उपयोग पूर्वक की हुई क्रियाओं से पापकर्म का बन्ध नहीं होता है। इससे उपर्युक्त प्रश्न का समाधान हो जाता है। उपयोगपूर्वक क्रियाओं का करने वाला पापकर्म का भागी नहीं होता है । अनुपयोग से कोई भी काम करने वाला पापकर्म का भागी है। अतएव प्रत्येक कार्य उपयोगपूर्वक करना हिए। उससे आरम्भजन्य पाप से लिप्त नहीं होते हैं।
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