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लोकसार नाम पञ्चम अध्ययन
-चतुर्थोद्देशकः
गत उद्देशकों मे चारित्र को विकसित करने वाले अङ्गों का प्रतिपादन किया गया है। अब इस उद्देशक में चारित्र-विघातक स्वच्छंदता का निषेध करते हैं। स्वच्छन्दता साधक जीवन के लिए भयानक रोग है। स्वच्छन्दता साधक के लिए घोर पतन है। यह प्रकृति की उच्छृङ्खलता से उत्पन्न होती है । आजकल के स्वतंत्रता के युग में प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्रता की बात करता है लेकिन स्वतंत्रता को बहुत कम लोग समझते हैं । स्वतंत्रता को समझने के लिए स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता का भेद समझने की आवश्यकता है । स्वतन्त्रता गुण है और स्वच्छन्दता दुगुण है । स्वतन्त्रता में आत्मा के अधीन प्रकृति होती है जबकि स्वच्छन्दता में आत्मा प्रकृति के अधीन हो जाती है । स्वतन्त्रता में नियमितता, व्यवस्था और विवेक होता है जबकि स्वच्छन्दता में उच्छृङ्खलता, अव्यवस्था और जड़ता होती है अतएव स्वच्छन्दता पतन है
और स्वतन्त्रता उत्थान है। इसी स्वच्छन्दता के कारण साधक अकेला विचरने लगता है। वह अपनी प्रकृति और कषायवृत्ति द्वारा एकल-विहार अङ्गीकृत करता है परन्तु सूत्रकार यहाँ एक-चर्या को संयम के लिए हानिकारक समझाते हैं । पात्र-भेद से इस नियम में अपवाद हो सकता है तथापि सामान्यरूप से एक-चर्या का निषेध करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं:
गामाणुगामं दूइजमाणस्स दुजायं दुप्परकंतं भवइ अवियत्तस्स भिक्खुणो। संस्कृतच्छाया-प्रामानुग्राम दूयमानस्य (विहरतः) दुर्यातं दुष्पराकान्तं भवति अव्यक्तस्य भिक्षोः ।
शब्दार्थ-अवियत्तस्य अपरिपक्व । भिक्खुणो=साधु का। गामाणुगाम-एक ग्राम से दूसरे ग्राम । दूइजमाणस्स अकेले विचरना । दुजायं-निन्दनीय विहार है और । दुप्परकंत= यह एकाकी विचरण असुन्दर । भवइ होता है ।
___ भावार्थ-ज्ञान और वय से अपरिपक्व साधु यदि अकेला एक ग्राम से दूसरे ग्राम जावे या फिरे तो उनका यह जाना और विचरना असुन्दर है-योग्य नहीं है।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में एकलविहार का प्रतिषेध किया गया है। साधना का मार्ग आसान नहीं है । इस मार्ग पर चलते हुए अनेक प्रकार के प्रलोभन और संकट सामने उपस्थित होते हैं। ये प्रलोभन
और संकट साधक को साधना के मार्ग से भ्रष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। अगर साधक जरा भी गफलत करता है तो समझना चाहिए कि उसका पतन हुआ । ऐसे प्रसंगों पर जागृति की प्रेरणा करने वाले सहकारी की अनिवार्य आवश्यकता होती है। इसी आशय से प्राचीनकाल से गुरुकुल की प्रणालिका
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