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अष्टम अभ्ययन अष्टम उद्देशक]
[५६६
संस्कृतच्छाया-मध्यस्थो निर्जरापेक्षी समाधिमनुपालयेत् ।
अन्तः बहिर्युत्सृज्य, अध्यात्म शुद्धमेषयेत् ।।५।। य कंचनोपक्रम जानीत, आयुः क्षमस्यात्मनः।
तस्यैवान्तरकाले क्षिप्रं शिक्षेत पण्डितः ॥६॥ शब्दार्थ-मज्झत्थो मध्यस्थ । निजरापेही निर्जरा की अभिलाषा रखने वाला। समाहि-समाधि का। अणुपालए पालन करे। अन्तो-आभ्यन्तर । बहिबाह्य उपधि को । विउस्सिज छोड़कर। अज्झत्थं अन्तःकरण को। सुद्धमेसए-शुद्ध बनावे ॥५॥ अप्पणो%3 अपने । आऊखेमस्स-जीवन के लिए। जंकिंचि-जो कोई भी । उवकम-उपक्रम-विघ्न । जाणे=3 मालूम हो तो । तस्सेव-उस संलेखना काल के। अन्तरद्धाए-बीच में ही। पण्डिए पण्डित मुनि । खिप्पं शीघ्र ही । सिक्खिज-भक्तपरिज्ञादि का सेवन करे ॥६॥
भावार्थ-मध्यस्थभाव में स्थित, एकान्त निर्जरा का अभिलाषी मुनि समाधि का पालन करे। कषाय आदि आन्तरिक और उपकरण आदि बाह्य उपधि का त्याग करके अपने अन्तःकरण को विकारविहीन बना करके आत्म-चिन्तन करे ॥५॥
___ संलेखना में स्थित मुनि को यदि अपने जीवन को कम करने वाले किसी विघ्न का ज्ञान हो जाय तो उस बुद्धिमान् मुनि को संलेखना काल में ही शीघ्र भक्त-परिज्ञा आदि का अनुष्ठान कर लेना चाहिए ।।६]
विवेचन-इन गाथाओं में संलेखना में स्थित मुनि को कैसा होना चाहिए यह बताया गया है। सूत्रकार ने सर्वप्रथम 'मज्झत्थो' पद दिया है । इसका आशय यह है कि संलेखना करने वाले को मध्यस्थ भाव रखना चाहिए । उसे किसी पर राग और किसी पर देष नहीं होना चाहिए अथवा उसे जीवन और मरण में समभाव रखना चाहिए। जीवन बना रहे तो क्या? और जीवन चलाजाय तो क्या ? इस प्रकार की निराकांक्षा रखना संलेखना करने वाले मुनि का प्रधान कर्त्तव्य है । जीवन और मरण की आकांक्षा बनी रहती है तो जिस समाधि और शान्ति की अभिलाषा से संलेखना की जाती है वह प्राप्त नहीं होती है। अतः जीवन और मरण में तथा अन्यत्र भी कहीं राग-द्वेष नहीं करना चाहिए।
दूसरा गुण है-निजरापेही । संलेखना करने वाला मुनि केवल निर्जरा की भावना से ही संले खना करे । मान-प्रतिष्ठा के लिए अथवा शरीर के दुखों से घबराकर शीघ्र मरने के लिए संलेखना न करे। संलेखना करने से मेरी लोक में सर्वत्र महिमा होगी अथवा परलोक में दिव्य कामभोगों की प्राप्ति होसी ऐसे विचार से की जाने वाली संलेखना से कोई आत्मिक लाभ नहीं होता। इसी तरह परीषह और उपसों से पीड़ित होने पर व्याकुल होकर मरने के लिए संलेखना करना कायरता है। संलेखना का उद्देश्य एक ही होना चाहिए और वह है-निर्जरा की भावना। निर्जरा की भावना से अंगीकृत संलेखनाही पाभ्यात्मिक संलेखना है।
संलेखना करने वाले का तीसरा गुण है-समाधि का पालन । चाहे जैसी वेदना हो तो भी समभावपूर्वक उसे सहन करना चाहिए और चित्त में तनिक भी पाकुलासा-व्याकुलतान लानी चाहिए । धीर
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