Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 621
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [आचाराङ्ग-सूत्रम् का, ऐसी क्रिया का चिन्तन या अवलम्बन न ले । पाप के व्यापार से आत्मा को निवृत्त करे और जो परीपह-उपसर्ग आवे उन्हें समभाव से सहन करे ॥ १८॥ विवेचन-इन्द्रियाँ और मन विषयों की ओर स्वाभाविकरूप से प्रवृत्त हो जाया करते हैं अतः साधक को उन पर पूरा नियंत्रण रखना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि इन्द्रियाँ अपने २ विषय को ग्रहण किये बिना तो नहीं रह सकतीं अतएव आवश्यक यह है कि उनके द्वारा गृहीत मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषयों के प्रति राग या द्वेष न किया जाय । यदि साधक राग या द्वेष मे फंस जाता है तो उसकी साधना निष्फल हो जाती है इसलिए ऐसे उच्चकोटि के तथा अनन्य सदृश ( अनुपम ) इङ्गितमरण को अपनाकर साधक राग-द्वेष से परे हो । 'अनन्यसदृश' पद देकर सूत्रकार इङ्गितमरण का गौरव सूचित करते हैं और उसकी आराधना करने वाले की विशिष्ट योग्यता प्रतिपादित करते हैं। इङ्गितमरण में शरीर क्षीण हो जाता है अतएव साधक को सहारे की आवश्यकता हो यह स्वाभाविक है। इसलिए सहारा लेने के लिए जीवरहित पाटिये की अन्वेषणा करनी चाहिए । जिस पाटिये में घुण इल्ली आदि जीव-जन्तु पड़ गये हों उसका कदापि अवलम्बन नहीं लेना चाहिए । जीवों की यतना का तप की अपेक्षा विशेष महत्व है इसलिए साधक कदापि जीवयुक्त काष्ठखण्ड का अवलम्बन न ले । इसी तरह जिन क्रियाओं से, जिन वचनों से और जिन विचारों से वन के समान भारी कर्म की उत्पत्ति होती हो उनका सर्वथा परित्याग करे। मन, वचन और काया को इस प्रकार संयमित करे कि उनसे पाप की उत्पत्ति ही न हो । पाप के उपादानों और निमित्तों से अपने आपको दूर रखे। संस्तारक पर रहा हुआ मुनि मेरू के समान निश्चल, धीर और दृढ़ बनकर उत्तरोत्तर वर्द्धमान अध्यवसायों की श्रेणी पर चढ़ता हुआ सर्वज्ञ-प्रणीत आगमों में अडोल श्रद्धा रखता हुआ, आत्मतत्त्व का चिन्तन करता हुआ, देह और आत्मा की भिन्नता का अनुभव करता हुआ और सब परीषह-उपसगों को समभाव से सहन करता हुआ समाधि में मग्न रहे। ऐसा साधक याये हुए दुखों को,रोगों को और परीषहों को अपने कमों का फल समझकर कर्मक्षय के लिए सहर्ष सहन करता है। वह समझता है कि इन दुखों और वेदनाओं से शरीर की ही हानि होती है, आत्मा की नहीं। मेरा आत्मतत्त्व तो अखण्ड आनन्दमय है उसे पीड़ा हो ही नहीं सकती। जिसे पीड़ा हो रही है वह शरीर तो नष्ट होने वाला ही है अतः उसकी क्या चिन्ता! ऐसे शुभ अध्यवसायों के द्वारा वह साधक सब संकटों और स्पों को सहन करता है। वह आत्मा के आनन्दमय स्वरूप में निमग्न रहता है अतः उसकी समाधि अखण्ड बनी रहती है। ऐसा साधक इङ्गितमरण का सफल आराधक होता है और वह शीघ्र ही अपना साध्य सिद्ध कर लेता है। यह इङ्गितमरण का अधिकार पूर्ण हुआ। अब इससे उच्चतर स्थिति-पादपोपगमन का वर्णन करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं: अयं चाययतरे सिया जो एवमणुपालए। सव्वगायनिरोहेऽवि ठाणाश्रो न विउन्भमे ॥१६॥ अयं से उत्तमे धम्मे पुव्वट्ठाणस्स पग्गहे । अचिरं पडिलेहिता विहरे चिट्ठ माहणे ॥२०॥ For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670