Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 652
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । ६०६ नवम अध्ययन तृतीय उद्देशक ] एलिक्खए जणा भुजो बहवे वजभूमि फरूसासी। लटुिं गहाय नालियं समणा तत्थ य विहरिंसु ॥५॥ एवं पि तत्थ विहरन्ता पुटपुव्वा अहेसि सुणिएहिं । संलुंचमाणा सुणएहिं दुचराणि तत्थ लाढेहिं ॥६॥ निहाय दण्डं पाणेहिं तं कायं वोसज मणगारे । अह गामकण्टए भगवन्ते अहियासए अभिसमिच्चा।७। नागो संगामसीसे वा पारए तत्थ से महावीरे । एवं पि तत्थ लादेहिं अलद्धपुव्वो वि एगया गामो।। संस्कृतच्छाया-श्यां जनाः भूयो बहवो वज्रभूमी परुषाशिनः। .. लष्टिं गृहीत्वा नालिकां श्रमणास्तत्र च विजहुः ॥५॥ एवमपि तत्र विहरन्तः स्पृष्टपूर्वाः आसन् श्वमिः । संलुच्यमानाः श्वमिश्नराणि तत्र लाढेषु ॥६॥ निधाय दण्डं प्राणिषु तत्कायं व्युत्सृज्यानगारः। अथ प्रामकण्टकान भगवानध्यासयत्य मिसमेत्य ।। नागो संग्रामशीर्षे या पारगस्तत्र स महावीरः। एवमपि तत्र लाढेषु प्रलब्धपूर्वोऽप्येकदा ग्रामः ॥८॥ शब्दार्थ-एलिक्खए इस प्रकार की। वजभूमि वज्रभूमि में। मुजो पुनः पुनः भगवान् विचरे । बहवे जणा=अधिकांश मनुष्य । फरुसासी रूक्ष भोजन करने वाले थे । तत्थ= उस लाढ देश में । समणा चौद्ध आदि श्रमण । लढ़ि-लाठी । नालियं शरीर से चार अंगुल बड़ी लकड़ी । गहाय हाथ में रखकर । विहरिंसु-विचरते थे ॥शा तत्थ वहाँ । एवं पि विहरन्ता= इस प्रकार विचरने पर भी। सुणिएहिं पुट्टपुव्वा अहेसि=कुत्ते उनके पीछे लगे रहते । सुणएहिं संलुंचमाणा=चे कुत्तों के द्वारा काटे जाते । तत्थ लाहिं उस लाढ देश में । दुचराणि-विचरना बड़ा कठिन है ॥६॥ पाणेहि जीवों की । दण्डं निहाय हिंसादि का त्याग करके । तं कायं वोसज-अपने देह-मान को भूलकर गामकण्टए कठोर वचनों को । भगवन्ते भगवान् । अभिसमिचा-निर्जरा और समभाव का विचार कर । अहियासए-सहन करते थे ॥७॥ संगामसीसे नागो वा-जैसे संग्राम में हाथी भागे रहकर विजय पाता है इसी तरह । तत्थ से महावीरे पारए= वहाँ अनार्यदेश में भगवान महावीर परीषहों को जीतकर पार हुए। तत्थ लादेहि-उस लाढ देश में । एगया कभी २ तो | गामो अलद्धपुव्वो वि-रहने के लिए ग्राम भी नहीं मिलता था ॥८॥ For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670