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तृतीय अध्ययन द्वितीयोदेशक ]
[ २३३
षट्खंड के अधिपति भरत चक्रवर्ती के सांसारिक सुखों की कमी नहीं थी तो भी वे उस सुख को ठुकरा कर त्यागमार्ग में प्रवृत्त हुए और उसमें उन्होंने सुख माना । क्या इससे यह प्रतीति नहीं होती कि सांसारिक सुख सच्चे सुख नहीं वरन् सुखाभास हैं ? अगर उनमें सच्चा सुख होता तो भरत चक्रवर्ती उन्हें त्याग कर त्यागी क्यों बनते ? जिन्होंने बाह्य पदार्थों में सुख माना था आखिर वे भी त्यागमार्ग की शरण में तो सच्चे सुख की प्राप्ति हुई। सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए त्याग ही राजमार्ग है ।
जिन बुद्धिमान् साधकों ने भोगादि का एक बार त्याग कर दिया है वे कदापि उन्हें पुनः सेवन करने की अभिलाषा नहीं कर सकते । वे काम-वासनाओं को निस्सार समझते हैं। जिस प्रकार वमन किये हुए को चाटना अति जघन्य कृत्य है उसी तरह त्यागे हुए विषयों को पुनः ग्रहण करना अति जघन्य कृत्य है। बुद्धिमान् साधक स्वप्न में भी ऐसा नहीं कर सकते। जो साधक वमन किये हुए विषयों की मन से भी "कामना करता है वह मृषावाद दोष का भी सेवन करता है क्योंकि त्यागमार्ग अङ्गीकार करते समय इन्हें सेवन न करने की उसने प्रतिज्ञा ली है। धीमान् साधु इस प्रकार मृषावाद रूप द्वितीय दोष का सेवन नहीं कर सकता । इससे यह फलित हुआ कि वह व्यक्त विषयों की कदापि अभिलाषा नहीं कर सकता ।
सूत्रकार ने विषयों को निस्सार कहा है । निस्सार की व्याख्या यह है कि जिसके सेवन करने से हो । विषयों का चाहे जितना सेवन किया जाय लेकिन इससे तृप्ति का अभाव ही होता है इसलिये विषय निस्सार कहे गये हैं। केवल मनुष्यों के विषय ही निस्सार नहीं है अपितु देवताओं के विषयसुख भी शाश्वत और स्थिर हैं। देवताओं से लगाकर सूक्ष्म कीट को भी जन्म-मरण का चक्र पीड़ा दे रहा है । यह जानकर विषयों से पराङ्मुख होना चाहिए और संयम में विचरण करना चाहिए ।
सूत्र में संयम को 'अण्णा' ( अनन्यं ) कहा है । इसका अर्थ यह है कि जिससे बढ़कर अन्य कोई श्रेष्ठ नहीं वह अनन्य । संयम अथवा मोक्ष से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ वस्तु नहीं हो सकती अतः संयम या मोक्ष को अन्य कहा गया है।
अबतक त्यागमार्ग की आवश्यकता का प्रतिपादन किया । अब यह बताते हैं कि त्यागमार्ग अङ्गीकार करने के बाद त्यागी का जीवन कैसा होना चाहिए ।
त्यागी का सर्वप्रथम गुण अहिंसा है । वह अहिंसा का साक्षात् अवतार होता है अतः वह त्रिकरण त्रियोग से पूर्ण अहिंसक होता है । वह सूक्ष्म जीवों को भी नहीं सताता है, न अन्य के द्वारा पीड़ा पहुँचाता है और न पीड़ा पहुँचाने वाले को अनुमोदन देता है । वह सूक्ष्म हिंसा से भी सदा बचता रहता है ।
तत्पश्चात् त्यागी का यह कर्त्तव्य है कि वह स्त्रियों में आसक्त न हो और वासना-जन्य सुखों का तिरस्कार करें। जबतक त्यागी के हृदय में विषयों के और स्त्रियों के सम्बन्ध में सूक्ष्म मात्र भी आसक्ति रहती है वहाँ तक त्यागमार्ग की साधना निर्विघ्न रूप से नहीं हो सकती । त्यागियों को इस तत्त्व पर विशेष ध्यान देना अनिवार्य है क्योंकि ये विषय बड़े लुभावने और मनोहर प्रतीत होते हैं। इनके चक्कर में आ जाना • कोई बड़ी बात नहीं। जरा सी असावधानी भयङ्कर हो जाती है। अतएव इस विषय में विशेष सावधान रहने का कहा गया है।
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