Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

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Page 594
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन षष्ठ उद्देशक ] [ ५५१ भावार्थ – साधु अथवा साध्वी अशनादिक का आहार करते हुए स्वाद लेने के लिए आहार को बायें गाल (जबड़े) से दाहिने गाल की ओर न ले जावे. इसी तरह दाहिने जबड़े से बायें जबड़े की ओर नं ले जावे | इस प्रकार स्वाद नहीं लेने से बहुत-सी पंचायतें कम हो जाती हैं ( लाघव प्राप्त होता है ) 'प की प्राप्ति होती है । इसलिए भगवान् प्ररूपित तत्व के रहस्य को जानकर समभाव से रहना चाहिए । विवेचन -- इस आठवें अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में उद्गम, उत्पादन आदि दोषों का निषेध करने से गवेषणैषणा का प्रतिपादन किया। पांचमें उद्देशक में अभ्याहत आहार का निषेध करके ग्रह का वर्णन किया अब शेष रही हुई ग्रासैषणा का वर्णन इस सूत्र में किया है। सैषा की शुद्धि के लिए साधक को निम्न पांच प्रकार के दोषों से बचना चाहिए - (१) संयोजना (२) श्रप्रमाण (३) इङ्गाल (५) धूम (५) अकारण | (१) संयोजना - जिह्वा की लोलुपता के कारण आहार को स्वादिष्ट बनाने के लिए दूसरों पदार्थों से मिला कर खाना । जैसे- दूध में शक्कर मिलाना आदि । (२) प्रमाण - प्रमाण से अधिक भोजन करना | (३) इङ्गाल - सरस आहार करते हुए वस्तु की अथवा दाता की तारीफ करते हुए खाना । ( ४ ) धूम - नीरस आहार करते हुए पदार्थ की अथवा दान की निन्दा करते हुए अरुचिपूर्वक आहार करना । (५) अकारण - तुधा वेदनीय आदि छह कारणों में से किसी भी कारण के बिना आहार करना । उपर्युक्त पांचों दोषों का सम्बन्ध स्वाद से है। पांचों दोषों से रहित आहार करने का विधान करके स्वाद व्रत की अनिवार्यता प्रकट कर रहे हैं। पहले के उद्देश्यों में संयमी साधक के जीवन सम्बन्धी बहुत प्रश्नों का समाधान सूत्रकार कर चुके हैं। उनमें ब्रह्मचर्य पर विशेषतः भार दिया गया है। ब्रह्मचर्य ही साधनामन्दिरका मूल आधार है । ब्रह्मचर्य पालन के साथ स्वाद व्रत का बहुत निकट सम्बन्ध है । स्वाद के पालन के बिना ब्रह्मचर्य की यथावत् पालना करना अति दुष्कर है। जो व्यक्ति स्वाद को जीते बिना वास्तविक ब्रह्मचर्य पालने की इच्छा रखता है वह कदापि सफल नहीं हो सकता । स्वाद ब्रह्मचर्य पर बड़ा घातक प्रभाव डालता है इसलिए सूत्रकार यहाँ स्वाद को जीत कर स्वाद व्रत का पालन करने का उपदेश देते हैं । जिह्न न्द्रिय पर विजय पाने के लिए सूत्रकार ने यहाँ तक फर्मा दिया है कि स्वाद के लिए आहार को मुख में एक तरफ से दूसरी तरफ न ले जाना चाहिए। इतने कठिन नियम का विधान करके सूत्रकार ने यह स्पष्ट किया है कि साधक के लिए स्वादजय एक महत्वपूर्ण अङ्ग है । स्वाद को जीते विना साधना अधूरी है। स्वाद के वश में पड़ा हुआ प्राणी कैसे संयम की आराधना कर सकेगा ? स्वाद सभी विकारों को उत्तेजना देने वाला है । स्वाद का असंयम संसार के बहुत से प्रपञ्चों का कारण है । जो स्वाद पर विजय प्राप्त कर लेता है उसके बहुत से प्रपञ्च स्वयमेव दूर हो जाते हैं और वह लघुभूत होकर शान्ति का अनुभव करता है । For Private And Personal

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