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[ श्रचासङ्ग-सूत्रम्
माराए = मरण के लिए । नरगाए - नरक के लिए। नरगतिरिक्खाए - नरक के पश्चात् तिर्यश्च में उत्पत्ति के लिए होता है ।
भावार्थ - यह मोहान्ध संसार, स्त्रियों के सहज हावभाव तथा चेष्टाओं के द्वारा अत्यन्त दुखी होता है और स्त्रियों के वशवर्ती होता है । वे कामी इस प्रकार बोलते हैं कि "ये स्त्रियां भोगोपभोग के साधन हैं” परन्तु उनका यह कथन भ्रमपूर्ण हैं । उनका इस प्रकार कहना दुख का मोह का, जन्ममरण का, नरक का और तिर्यञ्च गति का हेतुभूत होता है ।
विवेचन - मोहोत्पत्ति का एक बड़ा भारी कारण स्त्रियों के प्रति आसक्ति का होना है। स्त्रियों की स्वाभाविक दृष्टि, सहज सौन्दर्य, और नैसर्गिक अंग संचालन आदि भी कामियों और भोगियों के लिए गाढ आसक्ति के कारण हो जाते हैं। कामियों को स्त्रियों की प्रत्येक चेष्टा में कामभोग के दर्शन होते हैं । जैसे आँखों पर हरा चश्मा चढ़ा लेने से सब पदार्थ हरे मालूम होने लगते हैं उसी प्रकार जिसकी आँखों में काम का विष है उसे स्त्रियों के स्वाभाविक हास्य, विनोद, गीत तथा रुदन में भी आश्चर्य मालूम होता है ! उसे स्त्रियों के हाड़ मांस से बने हुए बीभत्स शरीर में अनुपम सौन्दर्य प्रतीत होता है । वह स्त्री के शरीरावयवों की चन्द्र, कमल, करि, स्वर्ण और रत्नादि श्रेष्ट पदार्थों के साथ तुलना करता है। वह श्लेष्म से भरे हुए स्त्री के मुख को चन्द्रमा की उपमा देता है उनके बीभत्स स्तनों को स्वर्ण के घट पर नीलम रत्न का ढङ्कन कहकर सराहता है तथा अशुचिमय देह को दिव्य स्वरूपी मानता है। कहा है
स्तनौ मांसग्रन्थी कनककलशावित्युपमितौ,
मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितं । मूत्रक्लिन्नं करिवरकरस्पर्शि जघन
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महोनिन्द्यं रूपं कविवरविशेषैर्गुरुक्कृतम् ॥
इस श्लोक का भावार्थ ऊपर लिखा जा चुका है।
तात्पर्य यह है कि स्त्रियों में आसक्त हुआ प्राणी अपनी आसक्ति के कारण स्त्रियों का गुलाम हो जाता है और अत्यन्त दुख प्राप्त करता है। सूत्रकार ने "प्रव्चहिए" ( प्रव्यथितः ) पद में 'प्र' उपसर्ग लगाकर खास तौर से यह सूचित किया है कि वह कामी और भोगी अत्यन्त दुखी होता हैं। आशा और अभिलाषा के चक्र में फँसा हुआ प्राणी नरक के कटुफल देने वाले भोगों को सुख की अभिलाषा से भोगता सर्प मृत उगल सकता है ? वह अज्ञानी प्राणी स्वयं भोगों का दास बन जाता है और फिर स्त्रियाँ मनमाने रूप से उसे नाच नचाती हैं। इस प्रकार स्त्रियों के वश में पड़ा हुआ प्राणी अत्यन्त दुर्दशा को प्राप्त करता है |
कामी और भोगी इस प्रकार की प्रवृत्ति करते हुए स्वयं तो डूबते ही हैं और साथ ही साथ अपनी भ्रमपूर्ण मान्यता का अन्य को उपदेश देते हुए दूसरों को भी डूबाते हैं। वे अज्ञानी इस प्रकार कहते हैं कि "स्त्रियाँ तो भोग के साधन ही हैं।" इस प्रकार कहते हुए वे सारी स्त्री-जाति का भयंकर अपमान करते हैं और साथ ही साथ अपनी आत्मा को धोखा देते हैं । अन्यान्य जड़ पदार्थों की तरह स्त्री को भी जो भोगोपभोग का साधन ही समझते हैं वे स्त्री जाति के महत्त्व को नहीं समझते। नारियों की पूजा करना
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