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आचाराङ्ग-सूत्रम्
त्यागी का यह स्वरूप सुनकर आत्मार्थी शिष्य गुरुदेव से प्रश्न करता है कि-गुरुदेव ! एक दूसरे की शर्म से दब कर या एक दूसरे के डर से अथवा आस पास के संयोगों के अधीन बनकर वृत्ति में पाप होते हुए भी जो पापकर्म नहीं करते हैं उनके त्याग को क्या त्याग कहा जा सकता है ?
शिष्य के इस प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य श्री फरमाते हैं कि हे शिष्य ! पापकर्म नहीं करने मात्र से मुनि नहीं हो सकता। मुनित्व का सम्बन्ध चित्तवृत्ति की समता से हैं । जहाँ समता है वहाँ मुनि-धर्म है। अन्दर की अभिलाषा यदि पाप करने की है और संयोगों के कारण या शर्म या डर के कारण पापकर्म नहीं करता है तो वहाँ समता टिक नहीं सकती है। वहाँ मुनिधर्म नहीं रह सकता है। अध्यवसाय की शुद्धि ही मुनिभाव का कारण है। ऐसी स्थिति में अध्यवसायों की अशुद्धि के कारण वह त्याग, सञ्चा त्याग नहीं कहा जा सकता है। त्याग आत्मा की वस्तु है और मुनिधर्म भी आत्मा से सम्बन्ध रखता है । जहाँ लोभ, भय या लोकेषणा है वहाँ यह आत्मा की चीज़ नहीं टिक सकती।
शिष्य पुनः प्रश्न करता है कि हे भगवान् ! साधु एक दूसरे की या गृहस्थों की शर्म से या निन्दा से डर कर आधाकर्म आदि दोषों का परिहार करता है-यह मुनिभाव का कारण है या नहीं ? उसे मुनि समझना चाहिए या नहीं ?
श्राचार्य समाधान करते हैं कि-शुभ अन्तःकरण पूर्वक जो क्रियाएँ की जाती हैं वही मुनि-भाव का कारण होती हैं । शुद्ध हृदय के परिणामों पर मुनि-धर्म निर्भर है बाहा संयोगों पर नहीं। मुनि की बाह्य क्रियाएँ करते हुए भी यदि भावों में विकार है तो निश्चय दृष्टि से वे मुनिभाव का कारण नहीं हो सकती हैं।
उक्त अभिप्राय निश्चय नय की दृष्टि से है। व्यवहार नय की अपेक्षा से तो जो पंच महाव्रतधारी समान साधुओं की लज्जा से अथवा गुरु आदि के डर से या महत्त्व पाने की लालसा से क्रियाएँ करता है तो भी वह मनि कहा जा सकता है क्योंकि परम्परा से उसमें अध्यवसाय उत्पन्न हो सकते हैं। उस समय शुभ अध्यवसाय न भी हों, केवल लोकभय से क्रिया करता हो तो भी कालान्तर में ये क्रियाएँ शुभ भाव पैदा करने वाली होती हैं। इसी प्रकार तीर्थ की प्रभावना के लिए प्रकट मासक्षमण तप इत्यादि करना भी व्यवहार की अपेक्षा से मुनिभाव का कारण समझना चाहिए क्योंकि परम्परा से शुभ अध्यवसाय हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि सच्चा त्याग तो उसी का नाम है जिसमें वासनाओं और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली जाती है। जहाँ समता है वहाँ त्याग है। जिस त्याग में स्वाभाविकता नहीं है वह त्याग विकास में अधिक साधक नहीं हो सकता । पदार्थों के संयोग या वियोग में मानसिक समतोलता कायम रख सकने में ही त्याग की सार्थकता है । इसी बात को आगे के सूत्र में स्वयं सूत्रकार स्पष्ट करते हैं। - समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसायए। अणनपरमं नाणी नो पमायए कयाइवि, धायगुत्ते सया वीरे जायामायाइ जावए ।
संस्कृतच्छाया-समां तत्रोत्प्रेक्ष्यात्मानं विप्रसादयेत्, अनन्यपरमं ज्ञानी नो प्रमादयेत् कदाचिदपि । आत्मगुप्तः सदा वीरो यात्रामात्रया यापयेत् ।
.शब्दार्थ--समयं समता का। तत्थुवेहाए विचार करके । अप्पाणं अपनी आत्मा को । विप्पसायए प्रसन्न रक्खे । नाणी ज्ञानवान् साधक । अणनपरमं समभाव रूप संयम में।
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