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[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
सभी ने यही कहा है, यही कहते हैं और यही कहेंगे कि सब प्राणियों, सब भूतों, सब सत्त्वों और सब जीवों को नहीं मारना चाहिए। उन्हें शारीरिक और मानसिक संताप नहीं देना चाहिए। सब तीर्थंकरों के उप-देश का यही सार हैं । "अहिंसा परमो धर्मः” यही अगाध श्रुत- सागर के मन्थन का सार है । इस छोटे से वाक्य में सब तीर्थंकरों का उपदेश और सब शास्त्रों का सार गर्भित हो जाता है । यही तत्त्व है, इस पर श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है । श्री सुधर्मास्वामी ने अहिंसा के गागर में समस्त श्रुतसागर को भरकर अहिंसा की परम महत्ता का सूचन किया है । भगवती अहिंसा की निर्मल आराधना में ही समस्त तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन है । यही बात सूत्रकार ने "से बेमि" पद से सूचित की है। इस पद का यह अर्थ है कि "मैं वह कहता हूँ जिसपर श्रद्धा करने से सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है ।" यह अर्थ 'से' शब्द को तत् ( वह ) शब्द के अर्थ में लेने से निकलता है। अन्यथा 'से' का अर्थ 'वही मैं' है । जिसने भगवान् के चरणारविन्द की सेवा करते हुए उनके मुखारविन्द से यह सुना है वही मैं तुम से कहता हूँ । इस कथन से यह भगवद्वचन है अतएव प्रति श्रद्धास्पद है यह सूचित किया है। साथ ही बौद्धों के माने हुए क्षणिक वाद का भी इसमें खण्डन किया गया है । बौद्ध प्रत्येक वस्तु को क्षणमात्रस्थायी मानते हैं । उनके मत से कोई वस्तु दूसरे क्षण में नहीं रहती है। दूसरे क्षण में वे वस्तु का सर्वथा नाश होना मानते हैं। उनका यह युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि पदार्थ को एकान्त क्षणविध्वंसी मान लेने पर यह वही है इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान ( भूत काल का वर्त्तमान के साथ जोड़ रूप ज्ञान ) नहीं हो सकता। ऐसा ज्ञान होता है । सुधर्मास्वामी भी कहते हैं कि 'वही मैं हूँ' इससे उन्होंने बौद्धों के सर्वथा क्षणिकवाद का खण्डन किया है।
आगे चल कर सूत्रकार ने 'एवमाइक्खन्ति' एवं भासंति, एवं परणविंति एवं परूविति' इस प्रकार चार क्रियाओं का प्रयोग किया है। सामान्यतः ये क्रियाएँ एकार्थक हैं और विशेष महत्व के लिये इनका प्रयोग किया गया है । अथवा इक्खन्ति का अर्थ यह है कि देव और मनुष्यों की पर्षद् में सामान्य रूप से कहते हैं । भासन्ति का अर्थ यह है कि अर्धमागधी भाषा में तीर्थंकर उपदेश फरमाते हैं
वह भाषा अतिशय के कारण सभी प्राणियों की अपनी अपनी भाषा में परिणत हो जाती है। मतब यह है कि भगवान् अर्ध-मागधी में बोलते हैं लेकिन अतिशय के कारण सभी जीवों को ऐसा मालूम होता है कि भगवान् उनकी ही भाषा में बोल रहे हैं। 'परणविंति ' का अर्थ प्रज्ञप्त करते हैं - समझाते हैं । सामान्य कथन करने पर शिष्यों को संशय रह जाता है तो भगवान् संशय को दूर करने के लिए जीवाजीवादि तत्त्वों को प्रज्ञप्त करते हैं। 'परूविति' का अर्थ प्ररूपणा करते हैं कि सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं इस तरह विशेष रूप से फरमाते हैं । तात्पर्य यह है कि प्रसंगतः इन धातुओं के अर्थ में सामान्य भेद है, वैसे ये एकार्थक ही हैं। इस कथन पर अधिक जोर देने के लिए और विशदता के लिए चार समानार्थक धातुओं का प्रयोग किया गया है। इसी तरह सूत्र में प्रयुक्त प्राणी, सत्व, जीव और भूत ये भी एकार्थक शब्द ही है तो भी प्राणी की विभिन्न पर्यायों को बताने के लिए इनका पृथक् २ निर्देश किया गया है । प्राण शब्द से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय ओर चतुरिन्द्रिय का ग्रहण समझना चाहिए। भूत शब्द से वनस्पतिकाय का, जीव शब्द से पंचेन्द्रिय का और सत्व से पृथ्वीकाय आदि का ग्रहण करना चाहिए ! इस तरह जीव के सब भेदों का इनमें ग्रहण समझना चाहिए। इससे यह अर्थ निकला कि सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए।
साधारण रूप से हिंसा का अर्थ किसी जीव का हनन करना ही समझा जाता है लेकिन ऐसा नहीं है। हिंसा की व्याख्या प्रति व्यापक और उदार है। केवल प्राणों से रहित करना ही हिंसा नहीं है।
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