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प्रथम अध्ययन द्वितीय उद्देशक ]
... [४५ शब्दार्थ-से वह पृथ्वीकाय को सचित्त मानने वाला । तं पृथ्वीकाय समारम्भ को अहितरूप । संबुज्झमाणे भली प्रकार जानता हुआ । आयाणीयं ग्राह्य, सम्यग्दर्शनादि को। समुट्ठाय स्वीकार करके । भगवो साक्षात् भगवान के पास से । अणगाराणं निग्रन्थ साधुओं के पास से । सोचा-सुन करके । इह-इस मनुष्य जन्म में। एगेसि-कितनेक व्यक्तियों को। णायं भवति यह ज्ञात होता है कि । एस-पृथ्वीकाय का समारम्भ । खलु-निश्चय से। गंथे= आठ कर्मों की गांट रूप है । एस खलु मोहे-यही मोह रूप है । एस खलु मारे-यही मरण का कारण है । एस खलु णरए यही नरक का कारण है । इचत्य आहार, भूपण, कीर्ति आदि में । गढिए मूर्छित, आसक्त होकर । लोए प्राणी । जमिणं इस पृथ्वीकाय को। विरुवरूवेहि अनेक प्रकार के । सत्थेहि-शस्त्रों द्वारा । पुढविकम्मसमारंभेण पृथ्वीकाय का आरंभ करने से । पुढविसत्थं समारभमाणे-पृथ्वीकाय के लिये शस्त्रों का उपयोग कर हिंसा करते हुए । अएणे अन्य। अणेगरूवे अनेक प्रकार के । पाणे आणियों की । विहिंसइ-हिंसा करते हैं।
भावार्थ--सर्वज्ञदेव अथवा श्रमणजनों से आत्मविकास के लिये आदरणीय ज्ञानादि प्राप्त करके कितने ही प्राणी यह समझ सकते हैं कि हिंसा कर्मबन्धन का कारण है, मोह का कारण है, मरण का कारण है और नरक गति में ले जाने में कारण भूत है । तदपि जो अत्यन्त आसक्त प्राणी हैं वे भिन्न २ प्रकार के शस्त्रों द्वारा पृथ्वीकर्मसमारंभ से पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा करते हैं और अविवेक से साथ ही साथ वनस्पति त्रस आदि जीवों की भी हिंसा करते हैं।
विवेचन-हिंसा को कर्मबन्धन का कारण, मोह, मरण और नरक का कारण कहा है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि एक प्राणी की हिंसा से आठ प्रकार के कर्म कसे बंध सकते हैं ? इसका यों समाधान करना चाहिये कि हिंसक मारे जाने वाले प्राणी के ज्ञान का अवरोधक होने से ज्ञानावरणीय कर्म बांध लेता है-इसी तरह चक्षु अचक्षु आदि दर्शन में रुकावट डालने से दर्शनावरणीय कर्म बांधता है। मारे जाने वाले जीव को पीड़ा देने से असातावेदनीय बांधता है। प्राणि-हिंसा के समय विषय और कषाय प्रबल होते हैं इससे मोहकर्म बांधता है। मोहकर्म का फल पाने के लिये चार प्रकार के आयुष्य में से कोई श्रायु अवश्य बाँधता है। आयु के बन्ध के साथ शरीरादि को रचना करने वाला नाम कर्म बंध ही जाता है। इसी तरह नाम कर्म के साथ उच्चनीचता दर्शक गोत्र कर्म भी बांध ही लेता है। मारे जाने वाले जीव की शक्ति में विघ्न करने से अन्तराय कर्म बाँध लेता है। तात्पर्य यह है कि एक भी प्राणी की हिंसा का पाप इतना महान है कि उससे आठों प्रकार के कर्मों का बन्धन हो जाता है अतः प्राणि-हिंसा आठ कर्मों की गांठ रूप और नरकादि दुर्गति में ले जाने वाली कही गई हैं। साधक प्राणी को खानपान एवं कीर्ति और प्रतिष्ठा के आकर्षक प्रलोभन से बचकर सदा निरासक्त एवं सतत उपयोगी होना चाहिये।
दूसरा यह प्रश्न होता है कि पृथ्वीकायादिक सूक्ष्म जन्तुओं के नेत्र, कान, नाक, जीभ, वाणी और मन नहीं होते हैं तो वे दुःख का वेदन किस प्रकार करते हैं इसका समाधान स्वयं सूत्रकार निम्न सूत्र द्वारा करते है:
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