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अष्टम अध्ययन पञ्चमोद्देशक ]
भावार्थ --जिस अमिग्रहधारी भिक्षु साधक ने एकपात्र और दो वस्त्र रखने की मर्यादा की है उसे ऐसा विचार कदापि नहीं होता है कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करूँगा। कदाचित् उसके पास दो वस्त्र भी पूरे न हों तो उसे साधक के योग्य दो वस्त्रों की याचना करना कल्पता है । यावत् यह साधु का आचार है । अनन्तर जब साधक को यह मालूम हो कि हेमन्तऋतु चली गई है और ग्रीष्मऋतु आ गई है तो हेमन्तऋतु को लक्ष्य में लेकर जो वस्तु लिए हों उनका त्याग करे अथवा ( शीत की सम्भावना हो तो ) यदा-कदा आवश्यकतानुसार उनका उपयोग करे, अथवा दो में से एक का त्याग कर दे और उसकी भी आवश्यकता न हो तो वस्त्ररहित हो जावे, इस प्रकार करने से तपश्चर्या होती है ऐसा भगवान् ने प्ररूपित किया है ! इस कथन के रहस्य को समझ कर साधक वस्त्रसहित और वस्त्र हित दोनों अवस्थाओं में समभाव रक्खे ।
विवेचन-चतुर्थ उद्देशक में तीन वस्त्र रखने वाले साधक का कथन किया गया है। तीन वस्त्र रखने वाले साधक जिनकल्पी भी हो सकते हैं और स्थविरकल्पी भी हो सकते हैं परन्तु यहाँ जो दो वस्त्र रखने वाले साधकों का कथन है वे या तो नियम से जिनकल्पी, अथवा परिहार-विशुद्धि चारित्र वाले अथवा यथा लन्दिक या प्रतिमाप्रतिपन्न ही हो सकते हैं । यह बात टीकाकार श्री शिलावाचार्य ने अपनी टीका में स्पष्ट की है।
प्रासंगिक होने से यहाँ भितु की बारह प्रतिमाएँ ( प्रतिज्ञा-विशेष) बतायी जाती है:
(१) पहली प्रतिमा में भिक्षु साधक एकमास तक एक दत्ति ( दात) आहार ले और एक दत्ति पानी ले । अर्थात् आहार देते समय दाता एकबार में जितना आहार दे दे उसी में अपना निर्वाह कर ले और एकबार में-बिनाधारा टूटे जितना पानी मिल जाय उस पानी का उपयोग करे, अधिक न ले । इस प्रकार एकमास तक अनुष्ठान करना प्रथम प्रतिमा है।।
(२) दूसरी प्रतिमा में दो मासतक दो दत्ति आहारकी और दो दत्ति पानीकी ग्रहण करे-अधिक नहीं। (३) तीसरी प्रतिमा में तीन मास तक तीन दत्ति श्राहार की और तीन दत्ति पानी ग्रहण करे। (४) चौथी प्रतिमा में चार मास तक चार दत्ति आहार और चार दत्ति ही पानी ले । (५) पाँची प्रतिमा में पाँच मास तक पाँच दत्ति आहार और पाँच दत्ति पानी पर निर्वाह करे। (६) छठी प्रतिमा में छह मास तक छह दत्ति आहार और छह दत्ति पानी की ग्रहण करे।। (७) सातवीं प्रतिमा में सात मास तक सात दत्ति आहार और सात दत्तिं पानी पर निर्वाह करे।
(८) आठवीं प्रतिमा में सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास करे। दिन में सूर्य की आतापना ले और रात्रि में नग्न रहे। रात्रि में एक ही करवट से सोवे अथवा चित्त ही सोवे । करवट बदले नहीं। सामथ्र्य होने पर कायोत्सर्ग करके बैठे।
(E) नवमी प्रतिमा का अनुष्ठान आठवीं के समान ही है। विशेषता यह है कि रात्रि में शयन न करे। दण्डासन, लगुडारून या उत्कटासन लगाकर रात्रि व्यतीत करे । दण्ड की तरह सीधा-खड़ा रहना दण्डासन है । पैर की एडी और मस्तक का शिरवास्थान पृथ्वी पर लगाकर समस्त शरीर धनुष की भांति अधर रखना लगुड़ासन है । दोनों घुटनों के मध्य में मस्तक झुकाकर ठहरना उत्कट आसन है।
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