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द्वितीय अध्ययन तृतीयोदेशक ]
[ १२६
बाले=अज्ञानी | पुण=पुनः । निहे = राग बन्धन में पड़ा हुआ | कामसमरणुन्ने - विषयों में आसक्त बना हुआ । असमितदुक्खे - तृप्ति के अभाव से दुःख के शान्त न होने से । दुक्खी - दुःख प्राप्त करता हुआ । दुक्खाणमेव—–दुःखों के । श्रवट्टे=चक्र में । अणुपरियगृह = परिभ्रमण करता रहता है । 1
भावार्थ -- जो तत्वदृष्टा - तत्वों को समझने वाला है उसके लिए यह उपदेश नहीं है ( क्योंकि वह तो तत्वज्ञ होने से सम्यग्मार्ग पर ही चलता है) परन्तु जो रागादिमोहित व अज्ञानी होता है वह विषयों में रक्त होकर विषयों का सेवन करता है परन्तु भोगेच्छा शान्त नहीं होने से दुखी होकर दुखों के चक्र में ही भ्रमण करता है । ( उसे सन्मार्ग पर लाने के लिए इस उपदेश की आवश्यकता है ।) ऐसा मैं कहता हूँ ।
विवेचन - उपर्युक्त सूत्र में सूत्रकार ने यह बताया है कि उपदेश का पात्र कौन है ? जो व्यक्ति तत्वों को जानने वाला है और जिसे सत् असत् कर्त्तव्य का विवेक है उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती है क्योंकि वह स्वयं समकदार होने से सन्मार्ग पर ही प्रवृत्ति करेगा । उपदेश उनके लिए है जो अज्ञानी हैं, जिन्हें विवेक का भान नहीं है, जो राह भूले हुए हैं और जो उन्मार्ग पर भटक कर दुख से संतप्त हो रहे हैं। इसके साथ ही साथ यह आवश्यक है कि उपदेश श्रवण करने वाला जिज्ञासु हो । जो गलत राह पर चढ़कर भटक रहे हों और इससे वे अनुभव करते हैं कि हमराह भूले हैं, कोई पथ-प्रदर्शक बनकर हमें इस भ्रमण से मुक्त करें ऐसे जिज्ञासुओं के लिए यह उपदेश पथ-प्रदर्शक है - आकाशदीप हैजिसका अवलम्बन लेने से साध्य की प्राप्ति हो जाती है ।
दूसरी बात सूत्रकार ने "असमितदुक्खे” शब्द देकर यह उपदेश दिया है कि भोगों की तृप्ति भोगों से नहीं हो सकती । जिस प्रकार शराब पीने से शराबी को तृप्ति नहीं आती है परन्तु विशेष शराब पीने की इच्छा होती है, जैसे खुजलाने से खाज नहीं मिटती परन्तु ज्यों ज्यों खुजलाया जाता है त्यों त्यों खाज बढ़ती है इसी प्रकार विषयेच्छा को शान्त करने के लिए प्राणी विषयभोगों का सेवन करते हैं परन्तु फल यह होता है कि ज्यों ज्यों प्राणी विषयों का सेवन करते हैं त्यों त्यों विषयों की भावना बढ़ती जाती है । विषयभोगों से विषयवासना को शान्त करना मानों अपनी छाया को पकड़ना है। ज्यों ज्यो छाया को पकड़ने के लिए प्राणी वेग से भागता है त्यों को छाया भी आगे बढ़ती जाती है अतः छाया को पकड़ना जैसे संभव है वैसे ही विषयभोगों के सेवन से इच्छा तृप्त होना असंभव है । प्राणी भूल से यह समझ लेता है कि भोग भोगने से मुझे तृप्तिजन्य सुख मिलेगा परन्तु वह अन्त में निराश होता है । उसे सुख के स्थान में दुख ही मिलता है अतः वह संतुष्ठ और संतप्त होता है और पुनः पुनः दुखों के चक्र में पड़कर परिभ्रमण करता है । अगर इस प्रकार परिभ्रमण करना इष्ट न हो तो मानत्याग और भोगों से विरक्ति करनी चाहिए। जहाँ भोग है वहाँ रोग है, जहाँ विरक्ति है वहाँ मुक्ति है ।
इस तृतीय उद्देशक में मानत्याग और भोगों से विरक्त होने का उपदेश दिया गया है। धन प्राप्ति या अनुकूल संयोगों का अभिमान करना पाप है वैसे ही धन-हानि और प्रतिकूल संयोगों में दीनता लाना पामरता है। अतएव उच्च-नीच अवस्थाओं का मूल कारण और उसके फल का विवेक समझ कर भ्रान्त मार्ग को त्याग कर सत्य मार्ग पर चलने का प्रयत्न करना चाहिए ।
इति तृतीयोदेशकः
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