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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
आणा मामगं धम्मं एस उत्तरवाए इह माणवाणं वियाहिए, इत्यो - वरए तं झोसमाणे श्रयाणिज्जं परिन्नाय परियाएण विगिंचर, इह एगेसिं एगचरिया होइतत्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुद्धेसाए सव्वेसणाए से मेहावी परि व्वए सुभि अदुवा दुभि अदुवा तत्थ भेरवा पाणा पाणे किलेसंति ते फासे पुट्ठो धीरे हियासिज्जासि त्ति बेमि ।
संस्कृतच्छाया— श्राज्ञया मामकं धर्मे, एष उत्तरवाद इति मानवानां व्याख्यातः । अत्रोपरतः तज्झोषयन् आदानीयं परिज्ञाय पर्यायेण विवेचयति, इहैकेषां एकचर्या भवति तत्रेतरे इतरेषु कुलेषु शुद्धषणया सर्वेषणया स मेघावी परिव्रजेत् सुरभिः अथवा दुरभिः अथवा भैरवा प्राणिनः ( अपरान् ) प्राणिनः क्लेशयन्ति, तान् स्पर्शान् स्पृष्टो धीरोऽति सहस्वेति ब्रवीमि ।
शब्दार्थ — आणाए - आज्ञा के अनुसार चलने में । मामगं=मेरा | धम्मं=धर्म है। इह माणवाणं=मनुष्यों के लिए । एस = यह । उत्तरवाए - कैसा श्रेष्ठ फरमान | वियाहिए = कहा गया है । एत्थोवरए = संयम में लीन होकर । तं झोसमा = कर्मों को खपाते हुए । श्रायणीयं = कर्म के स्वरूप को । परिन्नाय = जानकर । परियायेणं साधु-पर्याय के द्वारा | विचिइ कर्म को दूर करना चाहिए । इह - इस प्रवचन में । एगेसां - किन्हीं साधको की । एगचरिया = एकचर्या | भवइ = होती है । तत्थेयरा - सामान्य साधुओं से विशेष - प्रतिमाधारी | इयरेहिं कुलेर्हि = भेदभावरहित अन्तप्रान्त कुलों में से । सुद्धेसाए- शुद्ध एषणा द्वारा । सव्वेसणाए = आहार, ग्रास आदि एषणा से । से मेहावी = वह बुद्धिमान् । परिव्वए = संयम में विचरण करे । सुभि = वह आहार सुगन्धयुक्त हो । श्रदुवा=अथवा दुब्भि = दुर्गन्धयुक्त हो । अदुवा = अथवा | तत्थ = एकलविहार में | भेरवा =भयङ्कर | पाणा = प्राणी | पाणे = अन्य प्राणियों को । किलेसंति-क्लेश देते हों तब | ते फासे = उन दुखों को | पुट्ठो = स्पृष्ट होने पर | धीरे = धैर्यवान् । श्रहियासिञ्जासि = सहन करें । त्ति बेमि= ऐसा मैं कहता हूँ ।
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भावार्थ - हे शिष्य ! तीर्थंकर देव ने कहा है कि आज्ञा के श्राराधन में ही मेरा धर्म है( मेरी आज्ञा को लक्ष्य में रखकर मेरा धर्म पालना चाहिए हो जम्बू ! यह मनुष्यों के लिए कैसा सुन्दर फरमान है | इसलिए बुद्धिमान् साधक संयम में लीन रहकर कर्मनाश के हेतु से धर्म - क्रिया का आचरण करता रहे। कर्म के स्वरूप को जानकर धर्मक्रिया करने से ही कर्मक्षय होता है । हे जम्बू ! कितने प्रतिमा साधक महर्षि एकाकी विचरने की प्रतिज्ञा वाले होते हैं । ऐसे साधक उच्चनीच का भेद न रखते हुए प्रान्त कुलों में से शुद्धभिक्षा द्वारा आहार प्राप्त करे और वह हार सुन्दर - सुगंधित
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