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[आचाराङ्ग-सूत्रम्
क्या लाभ ? शरीर को कष्ट देने से क्या प्रयोजन है ? परन्तु यह उनका बकवाद उनकी पामरता बताता है । वे भोगों में आसक्त बने हुए इन व्रत-नियम और तपादि का पालन नहीं कर सकते हैं अतः अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए वे ऐसी मिथ्या प्ररूपणा करते हैं। वे कहते हैं कि व्रततप नियमादि का फल शरीर को कष्ट देने के सिवाय और कुछ भी नहीं देखा जाता है। अगर जन्मान्तर में उनका फल मिलता है तो प्रत्यक्ष सुखों को छोड़कर अप्रत्यक्ष सुखों की कल्पना करना मूर्खता है। भोगादि विषय तो प्रत्यक्ष सुख देने वाले हैं। उनको छोड़कर अप्रत्यक्ष सुख की आशा क्यों करनी चाहिए ? परन्तु उनका यह कथन प्रलापमात्र है । यह उनकी इन्द्रियों की गुलामी को प्रकट करता है। वे इन्द्रियों के दास श्रात्मा के सच्चे सुख की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। इन्द्रियदमन, मनोनिग्रह और संयम आत्मविकास के मुख्य अंग हैं। इनका पालन करने से शारीरिक और मानसिक तन्दुरुस्ती रहती है जो आत्मसाधना में अत्यन्त श्रावश्यक और परमोपयोगी है। प्रत्येक साधक के लिए अपनी साधना में दृढ़ रहने के लिए ये खूब श्रावश्यक तत्त्व हैं । आत्मस्वरूप को समझने वाले प्राणियों को ये व्रतनियमादि सुखरूप प्रतीत होते हैं और ये शुद्ध सच्चे आनन्द का अनुभव करते हैं। परन्तु विषयादि में सुख लेशमात्र नहीं होते हुए भी प्राणी उनमें सुख का अनुभव करते हैं यह उनकी विपरीतता है। अनेक प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध है कि आत्मा, स्वर्ग नरक, परलोक आदि विद्यमान हैं। जब इनकी सत्ता स्वीकार की जाती है तो भवान्तर में ये व्रतनियमादि सुख देने वाले हैं इसमें किसी प्रकार की शंका नहीं हो सकती । तदपि थोड़ी देर के लिए शंका-शील के संतोष के लिए यह मान भी लिया जाय कि परलोक नहीं है तो भी जो प्राणी शुभ कर्म करते हैं-जो सांसारिक सभी द्वन्द्वों से विरत होने से सदा सुख का अनुभव करते हैं उनका क्या बिगड़ सकता है ? परन्तु जो नास्तिक होकर अशुभ कर्म करता है, और शुभ कर्मों का निषेध करता है वह तो परलोक के होने पर मारा जावेगा, ठगा आवेगा, क्योंकि अगर परलोक है तो दुःख उठाना ही पड़ेगा। इसके विपरीत जो श्रास्तिक है वह तो दोनों अवस्थाओं में सुखी ही होता है। यदि परलोक हुआ तो सुख मिलेगा ही और नहीं हुआ तो प्रशम आदि भाव होने से यहाँ भी सुख है ही। इस प्रकार आस्तिक के दोनों हाथों में लड्डू हैं।
संदिग्धेपि परे लोक त्याज्यमेवाशुभं बुधैः ।
यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः।। वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो नास्तिकों की ऐसी मान्यता और उसके प्रचार का कारण उनकी स्वच्छन्दता और पामरता है। अपनी भोग-लालसा और पौद्गलिक आसक्ति के कारण वे इस प्रकार का प्रलाप करते हैं। इसका स्थायी असर नहीं हो सकता है। उस प्रकार जो व्रतनियमादि का अपलाप करता है और जीवन, धन, स्त्री आदि में आसक्त है वह प्राणी विपरीत प्रवृत्ति करता है। वह अतत्व में तत्त्वबुद्धि और तत्त्व में अतत्त्वबुद्धि करता है और प्रत्येक वस्तु को विपरीत रूप से देखता है। कहा भी है:
दारा परिभवकारा, बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः। कोऽयं जनस्य मोहो ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ॥
स्त्रियाँ अपमान करने वाली हैं, बन्धु जन बन्धन के तुल्य हैं, विषय-कामभोग विष के समान हैं तो भी प्राणी का कैसा मोह है कि वह शत्रुओं से मित्रता की आशा करता है । यह कैसा विपर्यय है ?
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