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[आचाराग-सूत्रम् भावार्थ-ऐसे अनार्य लोगों की बस्ती में भगवान महावीर एकबार ही नहीं, अनेक बार विचरे। उस वज्रभूमि के निवासियों को ( भूमि की कठोरता के कारण या अन्य कारणों से ) खाने के लिए कम और रूखा मिलता था । ( इसलिए वे तामसी प्रकृति वाले और क्रोधी थे अतः साधु को भिक्षा के लिए आता हुआ दूर से देखकर ही द्वेषी बनकर कुत्तों को छू-छू करके उस साधु की तरफ दौड़ा कर उपद्रव करते थे । ) उस प्रदेश में विचरने वाले शाक्यादि श्रमण उस उपद्रव से बचने के लिए हाथ में लकड़ी
और नालिका (शरीस्-प्रमाण से चार अंगुल बड़ी लकड़ी ) रखते थे ॥५॥ इस प्रकार लकड़ी रखकर विचरने पर भी कुत्ते उनके पीछे लगे रहते और उन्हें काट खाते थे । उस लाढप्रदेश में विचरना आर्यो के लिए बड़ा विकट था ॥६॥ ऐसे भयंकर देश में भी भगवान् ने दुख देने वाले प्राणियों को भी दण्ड देने के विचार का त्याग करके ( किसी भी प्राणी के प्रति मन, वचन और कर्म से अशुभ प्रवृत्ति न करते हुए ) अपने देह का भान भूलकर विहार किया। इतना ही नहीं किन्तु उन अनार्य लोगों के कठोर वचनों को भी भगवान् ने निर्जरा-हेतु जानकर समभावपूर्वक सहन किया ||७|| जैसे उत्तम हाथी संग्राम में अप्रभाग पर रहता है (विरोधी के प्रहारों की परवाह न करता हुआ आगे बढ़ता जाता है ) उसी प्रकार लाढ देश में परीषहों की परवाह न करते हुए भगवान् महावीर उनके पारगामी हुए | उस लाढ देश में ग्राम इतने विरल थे कि चलते २ सांझ हो जाने पर भी कभी २ ठहरने के लिए ग्राम तक नहीं मिलता (और भगवान् को वहीं वृक्ष के नीचे रह जाना पड़ता था।)
उवसंकमन्तमपडिन्नं गामन्तियम्मि अप्पत्तं । पडिनिक्खमित्तु लूसिंसु एयारो परं पलेहित्ति ॥६॥ हयपुब्बो तत्थ दण्डेण अदुवा मुट्ठिणा अदु कुन्तफलेण। अदु लेलुणा कवालेण हन्ता हन्ता बहवे कन्दिसु ॥१०॥ मंसाणि छिन्नपुवाणि उटुंभिया एगया कायं । परीसहाई लंचिंसु अदुवा पंसुणा उवकारसु ॥११॥ उच्चालइय निहर्णिसु अदुवा भासणाउ खलइंसु ।
वोस?काय पणयाऽऽसी दुक्खसहे भगवं अपडिन्ने॥१२॥ संस्कृतच्छाया-उपसंक्रामन्तमपतिशम् प्रामान्तिकमप्राप्तम् ।
प्रतिनिष्क्रम्यालूलिषुः इतः परं पर्येहीति ॥६॥ हतपूर्वस्तत्र दण्डेनाथवा मुष्टिनाऽथवा कुन्तफलेन । अथवा लोष्टुना कपालेन हत्वा२बहवश्चकन्दुः॥१०॥ मांसानि छिन्नपूर्षाणि अवष्टभ्यैकदा कायं । परीषहाश्चालुचिषुः अथवा पांसुनाऽवकीर्णवन्तः ॥११॥
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