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२२४ ]
[ आचाराङ्ग -सूत्रम् यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि मिथ्यात्व और मोह को मुलकर्म कहने का क्या प्रयोजन है ? इसका समाधान यह है कि मिथ्यात्व और मोह के कारण ही कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है। मोह और मिथ्यात्व के कारण जीव आठों कर्म-प्रकृतियों को बाँध सकता है। इसी तरह मोह के क्षय होने से शेष कमों का भी शीव्र क्षय हो जाता है । तात्पर्य यह है कि मोह और मिथ्यात्व ही सभी कर्मों के बन्ध के कारण हैं इसलिये इन्हें मूलकर्म कहा है । आगम में कहा गया है कि
कहरणं भंते ! जीवा अट्ठ कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स उदएणं दरिसणावराणिज कम्मं नियच्छइ, दरिसणावरणिजस्स कम्मस्न उदएणं देसणमोहणीय कम्मं नियच्छइ, दंसहमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएण मिच्छत्तं नियच्छइ, मिच्छतेणं उदिरोणं एवं खलु जीव भट्टकम्मपगडीयो बंधा।
- अर्थ हे भगवान् ! जीव आठ कर्म-प्रकृतियों का बंध किस प्रकार करते हैं ? हे गौतम ! जीव ज्ञानवरणीय कर्म के उदय से दर्शनावरणीय कर्म का बंध करते हैं। दर्शनावरणीय कर्म के उदय से दर्शनमोहनीय का बँध करते हैं, दर्शनमोहनीय के उदय से जीव मिथ्याव का बन्ध करते हैं और मिथ्यात्व के उदय से जीव पाठों कर्म प्रकृतियों का बन्ध करते हैं।
___ उपर्युक्त आगम वाक्य में मिथ्यात्व से आठों कर्म-प्रकृतियों का बंध होना कहा है। इससे यह सिद्ध हुआ कि मोह और मिथ्यात्व मूलकर्म हैं । मोहनीय के क्षय होने पर शेषकर्म उसी तरह क्षय हो जाते हैं जैसे सेना के नायक के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है । कहा भी है
नायगम्मि हते संते जहा सेणा विणस्सइ ।
एवं कम्माणि नस्संति मोहणिज्जे खयं गए । अर्थात्-सेना-नायक के मारे जाने पर जिस प्रकार सेना नष्ट हो जाती है उसी प्रकार मोहनीय के क्षीण होने पर सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं ।
आशय यह हुआ कि मोहनीयकर्म मूलकर्म है और शेष अग्रकर्म हैं। इन मूल और अग्रकर्म को विवेक-बुद्धि से जानकर छोड़ना चाहिए ।
__सूत्रकार ने सूत्र में "विगिंच" पद दिया है। इसका अर्थ छोड़ना और पृथक् करना होता है। 'कर्मों का नाश कर' ऐसा न कहकर कमों को छोड़, कर्मों से अपनी आत्मा को पृथक् कर ऐसा कहने में सूत्रकार का कोई प्राशय है और वह यह है कि सभी दर्शनकारों का यह सिद्धान्त है कि "नासतो जायते भावो नाभावो जायते सतः' अर्थात्-असत् कभी सत् नहीं हो सकता और जो सत् है उसका अभाव नहीं हो सकता । जिस प्रकार आकाश-कुसुम असत् पदार्थ है तो वह तीनकाल में भी सत् नहीं हो सकता और
आकाश सत् है तो उसका त्रिकाल में भी सर्वथा अभाव नहीं हो सकता कर्म भी पौद्गलिक हैं और सत् हैं इसलिए उनका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता अतः अपनी आत्मा को कर्मों से पृथकरण करना चाहिए। अपनी आत्मा से कर्मों को दूर करना चाहिए । यह सूत्रकार का आशय मालूम होता है।
आत्मा को कर्मों से मुक्त करने पर जीव निष्कर्मा बन जाता है अर्थात्-कर्म-रहित होने से वह शुद्ध स्वरूप में आ जाता है और आत्म-ज्योति का दर्शन कर लेता है । निष्कर्मत्व ही आत्मा का सच्चा स्वरूप है।
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