Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 611
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६८ ] [प्राचाराग-सूत्रम् अधिक महत्त्व है । भाव-संलेखना का अर्थ है-कषायों को कृश करना । कषाय ही अशान्ति और संसार के मूल कारण है अतएव उन्हें दूर करने पर ही शान्ति और मुक्ति मिल सकती है। इसलिए संलेखना करते हुए कषायों को कृश करना सर्वप्रथम अनिवार्य है। क्रोधादि कषायों को कम करते हुए मुनि को अल्पाहार करना चाहिए । षष्ठ, अष्टम आदि तप करते हुए तथा पारणे में भी अल्प आहार करते हुए संलेखना का अाराधन करना चाहिए । प्रायः देखा जाता है कि तपश्चर्या करने वाले को क्रोध अधिक आया करता है । कदाचित् अल्पाहार के कारण क्रोध का उद्भव हो तो मुनि को उसे शान्त करना चाहिए। यदि क्रोध की शान्ति न हो तो वह सच्चा अनशन और तप नहीं है। आध्यात्मिक दृष्टि से वही सच्चा तप है जो क्रोधादि कषायों को क्षीण करता है । तप करने से यदि क्रोध बढ़ता है तो वह वास्तविक तप ही नहीं है। इसलिए संलेखना करने वाला मुनि अनशन श्रादि तप भी करे और कषायों को एकदम कुश कर दे । यदि कोई उसे कटु शब्द भी कह दे तो भी वह क्षमा धारण करे । क्षमा धारण करना आत्मा की प्रबलता और उन्नति का द्योतक है । जो व्यक्ति किसी के शब्दों को सुनकर एकदम आवेश में आ जाता है, क्रोध से जल उठता है तो समझना चाहिए कि अभी उसकी आत्मा का विकास नहीं हुआ है। जिसकी आत्मा जागृत हो जाती है वह सहज क्षमा धारण करता है । संलेखना करने वाला मुनि भी क्षमा धारण करे । कदाचित् अनशन श्रादि करते हुए या कर्मोदय से उस मुनि के शरीर में रोग उत्पन्न हो जाय तो भी वह समभाव रखता हुआ उसे सहन करे। सहनशीलता साधक का श्रेष्ठतम सद्गुण है। यदि मुनि ग्लान हो जाय तो उसे आहार का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए | आहार की अभिलाषा न करते हुए समाधि में दत्तचित्त हो जाना चाहिए। संलेखना में श्राहार का सर्वथा त्याग कर देने पर यदि भूख सताने लगे तो भी मुनि को मन से भी आहार की अभिलाषा नहीं करना चाहिए। वह ऐसा विचार भी न करे कि अभी तो मैं आहार कर लूं और बाद में शेष रही हुई संलेखना-विधि को पूर्ण कर लंगा। ऐसा विचार कर आहार की अभिलाषा करने वाला मुनि संलेखना से पतित हो जाता है और समाधिमरण को प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः संलेखना में स्थित रहने वाला मुनि आहार का परिपूर्ण त्याग करे और समाधि में लीन हो जाय । ऐसे साधक को जीवन और मरण की कामना नही होनी चाहिए। संलेखना स्वीकार करने के कारण होने वाली महिमा और यश की लालसा से अधिक काल तक जीवित रहने की इच्छा नहीं करनी चाहिए । इसी तरह दुख और वेदना से घबरा कर जल्दी मरने की भावना भी नहीं लानी चाहिए । जीवन और मरण-दोनों में समान भाव रखते हुए श्रात्म-स्वरूप के चिन्तन में लीन हो जाना चाहिए। जो साधक इस प्रकार स्वरूप-लीन हो जाता है वह समाधिमरण को प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता है। मज्झत्यो निजरापेही, समाहिमणुपालए। अन्तो बहिं विउस्सिन्ज, अज्झत्यं सुद्धमेसए ॥५॥ जं किंचुवक्कम जाणे, श्राऊखेमस्समप्पणो । तस्सेव अन्तरद्धाए, खिप्पं सिक्खिज पण्डिए ॥६॥ For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670