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१७८]
प्राचाराङ्ग-सूत्रम् संस्कृतच्छाया स्यात्तत्रैकतरं विपरामृशति षट्स्वन्यतरस्मिन् कल्प्यते । ।
शब्दार्थ-सिया-कदाचित । तत्थ-पापारम्भ में । एगयर छकाय में से किसी एक काय का भी । विप्परामुसइ-समारम्भ करता है वह । छसु-छ ही कायों में से । अन्नयरम्मि= प्रत्येक का-सबका प्रारम्भ करने वाला । कप्पइ-गिना जाता है ।
भावार्थ—कदाचित् पापारम्भ में प्रवृत्त प्राणी छःकाय के जीवों में से किसी एक का भी समारंभ करता है वह छःकाय में से प्रत्येक का आरम्भ करने वाला गिना जाता है । अर्थात् छहों काय का आरम्भ करने वाला गिना जाता है । अथवा दूसरा अर्थ ऐसा भी हो सकता है कि जो पूर्वोक्त पापस्थानों में से किसी एक का भी सेवन करता है वह बारबार छह प्रकार के काय में से प्रत्येक काय में उत्पन्न होता है।
विवेचन-इस सूत्र में हिंसा की पाप-गुरुता का वर्णन किया गया है अर्थात् यह प्रतिपादित किया गया है कि हिंसा करना सबसे बड़ा पाप है। जो हिंसा करता है या हिंसक बुद्धि रखता है उसके सभी गुणों का नाश हो जाता है। हिंसा पापों की बुनियाद है और अहिंसा धर्म की बुनियाद है । हिंसा की नींव पर पापों का महल खड़ा होता है और अहिंसा की बुनियाद पर धर्म का सुन्दर महल । जहाँ बुनियाद में विकृति हो जाती है या बुनियाद डांवाडोल होने लगती है तो उसके आधार पर महल कवतक टिक सकता है ? इसी प्रकार अहिंसा जब डांवाडोल होने लगती है तो सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि टिक नहीं सकते । इसका यह तात्पर्य हुआ कि जो हिंसा करता है अर्थात् प्रथम व्रत का भंग करता है वह शेष व्रतों का भी भंग करने वाला होता है । तथा जो छह काय में से किसी एक भी काय की हिंसा करता है वह छहों काय की हिंसा करने वाला समझा जाता है।
शंका हो सकती है कि एक काय का आरम्भ करने वाला अपर काय का या सर्व जीवकाय का समारम्भ करने वाला कैसे माना जा सकता है ? अहिंसा का भंग होने से शेष व्रतों का भंग किस प्रकार हो सकता है ?
इस शंका का समाधान करने के लिए कुम्हार की शाला में रहे हुए जल के सञ्चालन का दृष्टान्त दिया जाता है । उस जल के स्पर्श से अपकाय की विराधना होती है। उस पानी में मिट्टी मिली हुई है अतः पृथ्वीकाय का प्रारम्भ हुआ । जहाँ जहाँ पानी है वहाँ वनस्पति की सत्ता का नियम है । इस नियम से जल के सद्भाव से वहाँ वनस्पति भी समझनी चाहिए और उसकी विराधना होने से वनस्पति का प्रारम्भ हुआ । पानी के हिलाने से वायुकाय का समारम्भ हुआ और वायु के समारम्भ से वहां रही हुई अग्नि प्रज्वलित होती है जिससे अग्नि का समारम्भ हुआ । अग्नि के समारम्भ होने से त्रस जीवों का समारम्भ होता है । इस प्रकार एक काय की हिंसा में प्रवृत्त हुआ प्राणी अन्य कायों की भी हिंसा करता है। दूसरी बात यह है कि जिसकी हिंसा की भावना है और जो हिंसा करता है वह पहले पहल भले ही छोटे जीवों की हिंसा करे परन्तु धीरे धीरे वह बड़ी २ हिंसाएँ भी कर सकता है। जिसे हिंसा से संकोच भी नहीं वह छोटे और बड़े जीवों का क्या ध्यान रक्खेगा ? पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा करने वाला अप्काय के जीवों को भी हिंसा कर सकता है, अप्काय की हिंसा करने वाला अग्नि की हिंसा में संकोच नहीं कर सकता है। इसी प्रकार जो स्थावरों की हिंसा निस्संकोच करता है वह त्रस की हिंसा
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