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[आचाराग-सूत्रम् अपने विरक्त उदासीन साथियों की पूर्व के दोषों से अथवा झूठे वचनों से निन्दा करने लग जाते हैं वे साधारण व्यक्तियों के द्वारा धिक्कार पाते हैं और बहुत लम्बे समय तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। इसलिए बुद्धिमान् साधक यह सब विचार कर धर्म के सच्चे स्वरूप को समझे।
विवेचन-स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी अन्य सदाचारियों की निन्दा करने वाले अज्ञानियों की द्विगुण मूर्खता है यह पूर्व सूत्र में प्रतिपादित किया जा चुका है । अब सूत्रकार इससे विपरीत वृत्ति वाले साधकों की चर्चा करते हैं:--कतिपय साधक इस श्रेणी के होते हैं जो तथाविध कर्म परिणति के कारण स्वयं विशुद्ध रीति से संयम का पालन नहीं कर सकते हैं परन्तु वे अपनी कमजोरी प्रकट कर देते हैं । वे यह स्वीकार करते हैं कि आचारगोचर तो इस प्रकार का है परन्तु हम वैसा पालन नहीं करते हैं । वे अपनी निर्बलता को स्वीकार कर लेते हैं। वे इस प्रकार प्रगल्भता प्रदर्शित नहीं करते हैं कि हम जो करते हैं वही सही है। दोषों का सेवन करते हुए भी अपने आपको विशुद्ध संयमी कहकर वे दूसरी अज्ञानता सूचित नहीं करते हैं। शिथिलाचारी होकर भी कई अपने आपको आचार-सम्पन्न मानकर यह प्ररूपणा करते हैं कि जो हम करते हैं वही श्राचारमार्ग है । यह दुःषमकाल है, इसमें बलादि की हानि होती है इसलिए उत्सर्गमार्ग का यथाविधि पालन नहीं हो सकता है । कहा भी है:
नात्यायतं न शिथिलं यथा युञ्जीत सारथिः ।
तथा भद्रं वहन्त्यश्वा योगः सर्वत्र पूजितः । अर्थात्-जिस प्रकार सारथी रथ के घोड़ों की लगाम को न तो अधिक खींचता है और न ढीली छोड़ देता है लेकिन मध्यमरीति से अश्वों को हाँकता है इसी तरह न तो अधिक उत्कृष्ट चारित्र का पालन करना चाहिए और न चारित्र में अधिक शिथिलता लानी चाहिए । मध्यममार्ग से संयम की पालना करनी चाहिए । इस प्रकार अपवाद मार्ग का आश्रय लेकर शिथिलाचार का पोषण करते हैं । अवसपिणी काल और दुःषम आरे के बहाने वे अपने दुर्गुणों और कमजोरियों पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह उनकी प्रगल्भता को सूचित करता है । ऐसे व्यक्तियों का सुधार शक्य नहीं होता है ।
प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार जिन साधकों की चर्चा कर रहे हैं वे साधक यद्यपि विशुद्ध संयम का पालन नहीं करते हैं तदपि वे विशुद्ध प्राचार के प्रति श्रद्धा रखते हैं । वे दूसरों को शुद्ध आचार के पालन के लिए प्रेरणा करते हैं । वे विशुद्ध आचार वालों के प्रति बहुमान धारण करते हैं । ऐसे साधकों का सुधार बहुत शीघ्र हो जाता है क्योंकि वे अपने दोषों को स्वीकार करते हैं । दोषों को स्वीकार करने वाला साधक बहुत शीघ्र सन्मार्ग पर आ जाता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति दोष करके उसे स्वीकार नहीं करके छिपाने की कोशिश करता है उसके सुधार की कोई आशा नहीं की जा सकती है। दोष करने की अपेक्षा दोष को छिपाने का प्रयत्न करना अधिक अपराध है-यह विशेष हानिकारक है।
जो साधक दोषों का सेवन करते हुए भी दोषों का समर्थन करते हैं और अपने ही कमों की सराइना करते हैं वे चारित्र से तो भ्रष्ट होते ही है लेकिन साथ ही साथ शुद्ध ज्ञान और दर्शन से भी भ्रष्ट हो जाते हैं। अपने दोषयुक्त कार्यों को निर्दोष सिद्ध करने के लिए वे सूत्रों की अन्यथा प्ररूपणा करते हैं और इस प्रकार जिनभाषित तत्त्वों के विरुद्ध अपने वचन-आडम्बर का प्रयोग करते हैं। ऐसा करते हुए वे स्वयं दर्शन से भ्रष्ट होते हैं और दूसरों को भी शंका उत्पन्न करके सम्यक्त्व से पत्तित करते हैं। .
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