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. [पाचाराग-सूत्रम्
यह प्रतिपादन करके इस सूत्र में आचार्य रूप-रसादि से विरत होने का उपदेश फरमाते हैं । कहीं शरीर का प्रतिपालन करते हुए रसादि की लोलुपता और रूपासक्ति साधक में न आ जाय इसलिए सूत्रकार ने यहाँ यह फरमाया है कि साधक दिव्य रूप में अथवा सामान्य रूप में आसक्ति न करे। सुन्दर दिव्य रूप को देखकर अपना मन उस ओर न ले जाय । यहाँ सूत्रकार ने केवल रूप में आसक्ति न करने का कहा है, इसका कारण यह है कि पाँचों विषयों में रूप विशेष हानिकर्ता है इसलिए उसका उपलक्षण रूप से ग्रहण किया गया है । अभिप्राय तो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति न करें, यही है। रूप आँख का विषय है और आँख की गति और चपलता अति तीत्र है। उसका आकर्षण भी इतना ही उग्र है। इस इन्द्रिय के लिए निमित्त भी पल-पल में मिलते रहते हैं। शास्त्रकारों ने आँख को अप्राप्यकारी कहा है अर्थात्-अन्य इन्द्रियाँ तो पदार्थ को छूकर जानती है लेकिन आँख पदार्थ को दूर से ही ग्रहण कर लेती हैं। इसलिए चक्षु द्वारा ग्रहण किए हुए विषयों का मन पर बहुत जल्दी प्रतिबिम्ब पड़ जाता है इसलिए मन भी उस ओर ढीला होकर आकर्षित हो जाता है। इसलिए सभी इन्द्रियों में चक्षु-इन्द्रिय की प्रधानता बतलायी है उसका दुरुपयोग उतना ही भयंकर फल वाला होता है । इसलिए यहाँ सूत्रकार ने रूप में आसक्ति न करने का कहा है।
पुण्यरूप प्रकृति के कारण चक्षु की प्राप्ति होती है । उसे प्राप्त करके यह देखना है कि पुण्य से मिली हुई आँख का हम दुरुपयोग तो नहीं करते हैं ? उस पुण्य-प्रदत्त चक्षु से हम पाप का उपार्जन तो नहीं करते हैं ? क्या ये आँखें स्त्रियों की ओर दुर्बुद्धि से देखने के लिए मिली हैं ?
दुनियाँ में आजकल आँख के डाक्टर बहुत हो गये हैं। आँखों को अच्छी करने वाले डाक्टर का लोग अहसान मानते हैं । परन्तु विचारना है कि कुदरत ने हमें जो आँख दी है वैसी एक भी आँख हजारों डाक्टर मिलकर नहीं बना सकते । जब आँख के साधारण विकार को मिटाने वाले डाक्टर का अहसान मानते हैं तो जिस कुदरत ने आँख दी हैं उसका कितना आभार मानना चाहिए ? पुण्य प्रकृति ने आँख प्रदान की हैं तो कम से कम उससे पाप का उपार्जन तो नहीं करना चाहिए।
जिस प्रकार अपने शरीर की छाया को पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़ने वाला मुसाफिर ज्यों-ज्यों दौड़ता है-भागता है त्यों-त्यों उसकी छाया भी आगे दौड़ती जाती है और वह श्रम और निराशा से दुखी हो जाता है उसी प्रकार जो व्यक्ति सुन्दरता को देखकर उसे लूटने की अभिलाषा रखता है वह भी उसी तरह निराश और दुखी होता है। इसीलिए सूत्रकार महात्मा ने रूप से विरक्ति करने का कहा है। रूप के साथ ही साथ सभी इन्द्रियों के विषयों से भी विरक्त होना चाहिए।
ये इन्द्रियों के विषय संसार में परिभ्रमण कराते हैं । ये ही जन्म-मरण का कारण हैं और इन्हीं के कारण गति-अगति होती है। भवान्तर में जाने का नाम गति है और भवान्तर से आने का नाम
आगति है । यही संसार का स्वरूप है । अरहट्ट के यन्त्र के समान यह संसार-चक्र चलता रहता है । यह स्वरूप समम कर राग और द्वेष को दूर करना चाहिए।
__त्याग का उद्देश्य राग और द्वेष को घटाना हो सकता है। त्याग या तपश्चर्या का उद्देश्य ऐहलौकिक या पारलौकिक ऋद्धि, समृद्धि या किसी प्रकार की लब्धि की प्राप्ति की कामना नहीं है । वासनाजन्य सांसारिक सुख की अभिलाषा करना संसार-बुद्धि का कारण होता है। शास्त्रकार ने स्वर्ग-प्राप्ति की कामना से तपश्चर्या करने को तप नहीं कहा है। कई तपस्वी सांसारिक समृद्धि, चमत्कार और स्वर्ग के
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