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द्वितीय अध्ययन षष्ठ उद्देशक ]
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अनन्त समुद्र लहराता हुआ दिखाई देता है । जिनेश्वर देव ने जो आत्मधर्म और मोक्षमार्ग का निरूपण किया है उसी में वह रमण करता है, अन्यत्र नहीं । आत्म-साधना व मोक्ष-साधना ही उसका लक्ष्य होता है। इसके सिवाय अन्य सब उसके लिए अकारथ हैं। जबतक आत्म-तत्त्व और पर-तत्त्व का भलीभांति ज्ञान नहीं होता तबतक प्राणी संसार के बाह्य पदार्थों में सुख का अनुभव करने की भ्रान्त आशा रखता है। जब आत्मा और पर-पदार्थ का विवेक हो जाता है तो आत्मधर्म के सिवाय अन्यत्र रमण हो ही नहीं सकता अतएव जो परमार्थदृष्टा होता है वह आत्मधर्म (मोक्षमार्ग) से अन्यत्र रमण नहीं करता, ऐसा कहा गया है।
हेतुहेतुमद्भाव से व्याख्या करते हुए यह समझना चाहिए कि जो मोक्षमार्ग से अन्यत्र रमण नहीं करता वह तत्वदर्शी है । जो तत्वदर्शी है वह मोक्षमार्ग से अन्यत्र रमण नहीं करता है।
जहा पुराणस्स कथइ तहा तुच्छस्स कथइ, जहा तुच्छस्स कथइ तहा पुण्णस्स कथइ ।
___ संस्कृतच्छाया- यथा पुण्यवतः कथ्यते तथा तुच्छस्य कथ्यते, यथा तुच्छस्य कथ्यते तथा पुण्यवतः कथ्यते ।
शब्दार्थ-जहा=जिस प्रकार । पुएणस्स-राजादि श्रीमंतों को । कत्थइ=उपदेश देता है। तहा उसी प्रकार । तुच्छस्स-रंकादि को भी। कत्थइ-उपदेश देता है । जहा=जिस प्रकार। तुच्छस्स-रंकादि को। कत्थइ-उपदेश देता है। तहा-वैसा ही। पुण्णस्स-राजादि को भी । कत्थइ-उपदेश देता है।
भावार्थ-सच्चा उपदेशक जैसा उपदेश कुल, रूप और धन से सम्पन्न राजादि को देता है वैसा ही उपदेश सामान्य रक-जनों को भी देता है । सामान्य रंक-वर्ग को जैसे उपदेश देता है वैसे ही उच्च श्रीमन्तों को भी देता है।
_ विवेचन-इस सूत्र में उपदेशक के गुण बताये गये हैं। सच्चा उपदेशक, उपदेश देते हुए राग-द्वेष से रहित होता है। सच्चा उपदेशक श्रीमन्त, राजा, दलित, पीड़ित, पतित और गरीब सबको समान दृष्टि से देखता हुआ निस्पृह होकर उपदेश देता है। उसकी दृष्टि में अमीर, गरीब, उच्च, नीच, राजा या रंक का भेदभाव नहीं होता। मुनि-उपदेशक का मुख्य लक्षण है कि वह सभी को समभाव से देखे । वह जिस कल्याण-भावना से प्रेरित होकर श्रीमन्त को उपदेश देता है उसी कल्याण-भावना से रंक को भी उपदेश देता है। उसके उपदेश देने का उद्देश्य जन-कल्याण करने का होता है । जो व्यक्ति निस्पृह है, जिसे किसी तरह की कामना नहीं है उसके लिए राजा और रंक समान है। राजा का कल्याण करने के लिए उसे जैसा उपदेश देता है वैसी ही भावना के साथ रंक का कल्याण करने के लिए उसे भी उपदेश देता है। सच्चा साधु राजा-रंक और अमीर-गरीब के भेदों से परे होता है। उसका उपदेश देने का उद्देश्य लोककल्याण ही होता है।
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