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अष्टम अध्ययन पतुर्थोद्देशक ] ऽचेले (भवति) लाघविकमागमयन् , तपस्तस्यापिसमन्यागतं भवति, यदेतत्भगवता प्रवेदितं तदेवाभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया सम्यक्त्वमेव समभिजानीयात् ।
शब्दार्थ--अह पुण=अनन्तर । एवं जाणिज्जा=ऐसा मालूम पड़े कि । हेमन्ते खलु= हेमन्त ऋतु । उवाइकते बीत गई है। गिम्हे-ग्रीष्म ऋतु । पडिवन्ने आ गई है तो। आहापरिजुन्नाई-पूर्व के प्राचीन जीर्ण । वत्थाई वस्त्रों को। परिदृविजा छोड़ देना चाहिए। अदुवा=अथवा। संतरूत्तरे यदा-कदा जरूरत हो तो धारण करे । अदुवा अथवा । ओमचेले जितने वस्त्र हैं उनमें से कम करे। अदुवा अथव । एगसाडे-एक ही वस्त्र रक्खे । अदुधा-अथवा । अचेले वस्त्ररहित हो जावे ऐसा करने से । लापवियं लघुता की । आगममाणो प्राप्ति होकर । से उस साधक को। तवे-तप की। अभिसमन्नागए भवइ प्राप्ति होती है। जमेयं यह जो। भगवया भगवान् ने । पवेइयं कहा है। तमेव-उसी को । अभिसमिचा-भलीभांति जानकर । सव्वो सब प्रकार से । सव्वत्ताएसम्पूर्ण रूप से। सम्मतमेव-समभाव का ही। समभिजाणिजा-आसेवन परिज्ञा से पालन करे।
भावार्थ-जब साधक मुनि यह जान ले कि हेमन्त ऋतु चली गई है और ग्रीष्मऋतु आ गई है तो शीत को लक्ष्य में रखकर जो वस्त्र धारण किये थे उनका त्याग कर दे और उपयोगी हो तो-यदाकदा आवश्यकतानुसार उनका उपयोग करे अथवा तीन वस्त्र हो तो एक को छोड़कर दो रक्खे, अथवा दो को छोड़कर एक ही रक्ख अथवा सर्वथा वस्त्ररहित हो जावे । इस प्रकार वस्त्रत्याग द्वारा लाघवगुण प्रकट होता है और तप की आराधना होती है । यह जो भगवान् ने प्ररूपित किया है इसके रहस्य को समझकर वस्त्रसहित और वस्त्ररहित दोनों अवस्थाओं में समताभाव रक्खे ।
विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में वस्त्रादि की मर्यादा करने का सूचन किया गया था। तदनन्तर सूत्रकार इस सूत्र में यह प्रतिपादित करते हैं कि साधक का उद्देश्य सब पदार्थों का त्याग करना होता है। लेकिन जब साधक को यह मालूम हो कि वह शीतादि परिषह को सहन करने में असमर्थ है तो ही वह वस्त्र रखता है । वनधारण करने का उद्देश्य केवल शीत-निवारण का ही होता है। जब साधक को यह मालूम हो जाय कि अब शीत ऋतु चली गई है और ग्रीष्मऋतु आ गई है, अब शीत का उपद्रव नहीं है तो उसने ठण्ड निवारण के लिए जो वस्त्र स्वीकार किये थे उन्हें छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार जो वन जीर्ण हो गये हो उन्हें भी छोड़कर निस्संगतया विचारना चाहिए। अगर वस्रों को रखने की आवश्यकता हो तो सभी का त्याग न करे । अल्प वस्त्र अपने पास रक्खे और जब कभी शीतादि का अनुभव हो तो उसे काम में लेवे । अगर पास में तीन वस्त्र हो तो एक का त्याग करे और दो ही रक्खे । अगर दो की आवश्यकता न हो तो एक ही रक्खे । और एक की भी आवश्यकता न प्रतीत हो तो सर्वथा नग्न रहे।
इस तरह वस्त्र-परिहार करने से होने वाले परिणाम को व्यक्त करते हुए सूत्रकार फर्माते हैं कि जो साधक इस तरह वस्त्रादि का त्याग करता है वह ममतारहित हो जाता है और शरीर तथा उपकरणों की भी लघुता प्राप्त होती है । श्राशय यह है कि वस्त्रों के क्रमिक त्याग से निर्ममत्व गुण की प्राप्ति होती है
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