Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 615
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५७२ ] www.kobatirth.org संस्कृतच्छाया - संसकाश्च ये प्राणाः ये चोर्ध्वाधश्वराः । भुञ्जन्ते प्रांसशोणितं न क्षणुयात् न प्रमार्जयेत् ||६|| प्राणाः देहं विहिंसन्ति, स्थानान्नापि उदभ्रमेत् । आस्रवैर्विविक्तैस्तप्यमानोऽध्यासयेत् ॥१०॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संसप्पगाय जे पाणा जे य उड्डमहाचरा । भुञ्जन्ति मंससोणियं न छणे न पमज्जए ॥६॥ पाणा देहं विहिंसन्ति, ठाणाच न वि उब्भमे । यासवेहिं विवित्तेहिं तिप्पमाणो ऽहियासए ||१०|| [ श्राधाराङ्ग-सूत्रम् शब्दार्थ — जे य-जो | संसप्पगा कीड़ी आदि चलने-फिरने वाले । पाणा=प्राणी | जे य = और जो । उड्ढमहाचरा = गृद्ध आदि ऊर्ध्वचर और सर्प आदि अवर प्राणी हैं वे । मंससोयिं = मांस और खून को । भुञ्जन्ति = खाते हैं। मुनि उन्हें । न छणेन मारे । न पमञ्जए= न रजोहरणादि से हटावे || || पारणा प्राणी | देहं शरीर की । विहिंसन्ति - हिंसा करते हैं । ठाणा = उस स्थान से । न वि उब्भमे = अन्यत्र न जावे । आसवेहिं = आस्रवों से । विवित्तहिं = अलग होकर । तिप्पमाणो दुख दिये जाने पर भी । श्रहियास = सहन करे ॥ १० ॥ 1 1 भावार्थ - कीड़ी आदि संसर्पक, गिद्ध आदि खेचर, सांप वगैरह बिलवासी तथा अन्य मांसभक्षी या लोहू पीने वाले मच्छर आदि रक्त-मांस को खावें- पीवें तो संथारे में रहने वाला मुनि हाथ-पैर आदि से उन्हें न हने और न रजोहरण आदि से दूर करे || १ || पूर्वोक्त प्राणी मेरे देह की ही हिंसा करते हैं, मेरे ज्ञान-दर्शन आदि का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते हैं यह विचार कर उस स्थान से अन्यत्र न जावे । वों से दूर रहकर वेदना को सहन करे ||१०|| For Private And Personal विवेचन - संथारे में रहा हुआ मुनि शरीर की ममता का सर्वथा त्याग करता है। उसकी कसौटी तब होती है जब रक्त पीने वाले और मांस खाने वाले विविध कीड़ी-मकौड़े, खटमल आदि प्राणी, गिद्ध वगैरह अथवा सिंह या सर्प आदि उसके शरीर का खून पीते हैं और मांस खाते हैं। वह संथारे में रहा हुआ मुनिवन्तिसुकुमार की तरह उन आहारार्थी प्राणियों का हाथ आदि से निवारण नहीं करता है । वे प्राणी अपने तीखे तीखे डंकों से उस मुनि के शरीर को वेदना पहुँचाते हैं तदपि वह मुनि यह सोचता है। कि ये बेचारे प्राणी मेरे शरीर को पीड़ा पहुँचा रहे हैं लेकिन मेरी मूल वस्तु का तो कुछ बनता - बिगड़ता नहीं है, मेरे ज्ञान, दर्शन और चारित्र में कोई पीड़ा नहीं पहुँचने वाली है अतः इन बेचारे जीवों के आहार अन्तराय क्यों डालूं ? यदि मेरे शरीर से इन बेचारों को शान्ति पहुँचती है, इनकी क्षुधा का निवारण होता है तो यह मेरे शरीर की सार्थकता है। यह विचार कर वह मुनि उन्हें हनना तो दूर रहा उन्हें रजोहरणादि से अलग भी नहीं करता है। वह उन पर किसी भी प्रकार का द्वेष नहीं लाता है। उनके द्वारा

Loading...

Page Navigation
1 ... 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670