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चतुर्थ अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
[ २६३
श्री सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी को सम्बोधन करके जो उपदेश फरमाया है वह सकल-संसार को सुख का मार्ग बताने वाला है । जम्बूस्वामी को कहने के मिष से उन्होंने सकल प्राणियों को यह उपदेशामृत पिलाया है। दुनिया पर उन महापुरुषों का असीम उपकार है। दुनिया को उनका ऋणी होना चाहिए | महोपकारी सुधर्मास्वामी उपदेश प्रदान करते हैं तदपि स्वमनीषिका का परिहार करके उसे प्रभुभाषित कह कर उनके प्रति अपना विनय प्रकट करते हैं और इस बहाने शिष्यों को गुरु का विनय करने की शिक्षा देते हैं । अथवा अपने कथन को विशेष प्रमाणित करने के लिए यह कहते हैं कि यह सर्व कथन सर्वज्ञों द्वारा केवलज्ञान से देखा गया है। भगवान के चरणारविन्द के उपासक श्रोताओं द्वारा सुना हुआ । लघुकर्मी भव्यात्माओं द्वारा यह माना गया है। विशिष्ट ज्ञानियों द्वारा यह अनुभव किया हुआ है। अतएव मेरे इस सम्यक्त्वरूप कथन में यत्नशील होना चाहिए ।
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जो व्यक्ति इस कथन के अनुसार आचरण नहीं करते हैं, जो इस उपदेश पर श्रद्धा न करके संसार के पदार्थों में अति आसक्त बनते हैं और इन्द्रियों के विषयों में लीन बनते हैं वे पुनः पुनः जन्म-मरण करते हैं। आसक्ति और आत्मविकास एक साथ नहीं टिक सकते अतएव विकास के अभिलाषियों को अन्तर्मुख होना चाहिए और बाह्यदृष्टि का त्याग करना चाहिए ।
इसलिए साधक को रात-दिन मोक्षमार्ग में यत्नशील होना चाहिए। परीषह और उपसगों में धैर्यसम्पन्न होना चाहिए और विवेक दृष्टि के द्वारा प्रमादियों को धर्म से बहिर्मुख जानकर स्वयं अप्रमत्त बनकर साधना के मार्ग में उद्यमशील होना चाहिए। अप्रमाद अमृत है और प्रमाद विष है । प्रमाद ध्यात्मिक मृत्यु है । अतएव धर्ममार्ग को यथार्थ समझ कर दृढ़ निश्चयपूर्वक अपने मार्ग में श्रप्रमत्त रहना चाहिए यही सम्यक्त्व का परिणमन है ।
- उपसंहार -
समकित - सत्य लक्ष्यपूर्वक की हुई क्रियाएँ ही सार्थक हैं। अहिंसामय धर्म पर शुद्ध श्रद्धा करना सम्यक्त्व है । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अहिंसा व्यवहार्य है। जीवन में अहिंसा को जितना स्थान मिलता है उतना ही सनातन, सत्य और शुद्ध धर्म का पालन है। जीवन में उतरी हुई हिंसा न केवल व्यक्ति का बल्कि समाज, राष्ट्र और विश्व का कल्याण और विकास कर सकती है अतएव यह श्रहिंसामय धर्म सभी के लिए श्रद्धास्पद है ।
विलास हिंसा के पोषक हैं। हिंसा और धर्म एक साथ नहीं रह सकते है अत: अहिंसा के उपासकको अन्तर्दृष्टि रखनी चाहिए। अन्तर्दृष्टि रखते हुए सदा जागृत रहना चाहिए ।
इति प्रथमोद्देशक:
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