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[ आचाराङ्ग-सूत्रम
भावार्थ - आगमों का ज्ञाता, सम्यग्दृष्टि और राग-द्वेषरहित (मध्यस्थ) मुनि साधक पूर्व, पश्चिम, दक्षिण तथा उत्तर दिशा में रहे हुए जीवों को अनुकम्पा बुद्धि से धर्मोपदेश प्रदान करे, उसकी योग्यतानुसार धर्म के विभिन्न विभागों को बतावे और धर्म की वास्तविकता समझावे । वह मुनि सद्द्बोध श्रवण करने के अभिलाषियों को चाहे वे मुनि हों अथवा गृहस्थ हों सबको अहिंसा, त्याग, क्षमा, मुक्ति, सरलता, कोमलता तथा निष्परिग्रहता आदि का यथार्थरूप से -- आगममर्यादा का उल्लंघन न करते हुए बोध प्रदान करे। मुनि (स्व-पर उपकार का) विचार कर सब प्राणियों, भूतों, सत्वों और जीवों को धर्म का स्वरूप कहे ।
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विवेचन - सामान्यदृष्टि से देखने पर मुनि का जीवन और उसकी साधना केवल श्रात्म-कल्याण के लिए है, यह प्रतीत होता है परन्तु वस्तुतः मुनि की साधना एकान्ततः अपने लिए ही नहीं होती है । उसमें आत्म-कल्याण के साथ पर- कल्याण की भावना श्रोत-प्रोत होती है। मुनि की साधना में प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से किसी का अहित न हो इतना ही नहीं अपितु सबके कल्याण का उच्चतम आदर्श होता है। जिस प्रकार सरोवर में उठी हुई एक लहर सारे सरोवर को तरङ्गित करती हुई किनारे तक पहुँचती है उसी प्रकार व्यक्ति की क्रिया का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव समष्टि पर पड़ता है। मुनि की जीवन-चर्या का प्रभाव भी इतर व्यक्तियों पर अवश्य होता है। अतः मुनि भी एकान्त आत्मा का ही हितसाधक नहीं हो सकता । वह अन्य व्यक्तियों के हित को भी अपने दृष्टिबिन्दु में अवश्य रखता है। इसलिए अपनी साधना के फलस्वरूप उसे जो धर्मज्ञान और अनुभव प्राप्त होता है उसे वह दूसरों के सन्मुख रखता है और उस मार्ग पर चलने की उन्हें प्रेरणा देता है। मुनि का उपदेश-प्रदान पर कल्याण की उदात्त भावना से ही होता है । इस सूत्र में सूत्रकार ने उपदेशक की योग्यता, उपदेश देने योग्य विषय और उपदेश श्रवण के अधिकारियों का वर्णन किया है।
उपदेशक पर बड़ा भारी उत्तरदायित्व रहता है। उसके उपदेश से अनेक व्यक्ति अपने जीवन के गन्तव्य मार्ग का निर्णय करते हैं अतः यदि उपदेशक ज्ञानी और अनुभवी न होकर छिछला और अल्पज्ञ होता है तो उसके उपदेश से जनता के गलत मार्ग पर चले जाने की सम्भावना रहती है। इसलिए जैसेवैसे व्यक्ति को उपदेशक का उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य करने का साहस नहीं करना चाहिए । उपदेशक के लिए ज्ञानी, अनुभवी, मानस शास्त्र का अभ्यासी और देश काल को समझने की योग्यता वाला होना आवश्यक है । उसे स्व पर शास्त्रों का गहरा अभ्यास होना चाहिए। उसकी दृष्टि विशाल और सम्यक् होनी चाहिए | उसकी बुद्धि राग-द्वेष से परे होनी चाहिए। उसकी भावनाओं में मध्यस्थवृत्ति होनी चाहिए। इतने गुणों की आराधना करने के पश्चात् ही उपदेशक की जवाबदारी स्वीकार करने का साहस करना चाहिए। पूरी योग्यता के बिना उपदेश देने लग जाने से प्रवचन की हीलना और शास्त्रों की आशातना होने का भय रहता है । इसलिए सूत्रकार ने विशेषणों के द्वारा उपदेशक मुनि की योग्यता का कथन किया है।
सूत्रकार ने सूत्र में चारों दिशाओं का निर्देश किया है । इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि चारों दिशाओं में रहे हुए जीवों को धर्म का उपदेश देना चाहिए । धर्म सूर्य के प्रकाश के समान व्यापक है इसलिए वह अमुक के लिए है और अमुक के लिए नहीं है ऐसा नहीं होना चाहिए । प्राणिमात्र धर्म का श्रश्रय लेने का अधिकारी है। धर्म में किसी प्रकार का पक्षपात नहीं हो सकता । प्रत्येक जाति का, प्रत्येक देश का प्रत्येक वर्ग का और प्रत्येक स्थिति का व्यक्ति धर्मश्रवण और धर्म की आराधना करने का हकदार
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