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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
जाता है । तथारूप अनगार को चाहिये कि जिस श्रद्धा के साथ प्रत्रज्या - मार्ग अंगीकार किया है उसमें किसी प्रकार की शंका नहीं लाता हुआ सावज्जीवन उसी श्रद्धा का पालन करता रहे ।
विवेचन--अनगार के उत्तरा बताते हुए सूत्रकार ने प्रथम लत्तम "उज्जुकडे" बताया है इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि साधु को सर्व प्रथम अपना अन्तःकरण सरल बनाना चाहिये क्योंकि हृदय की सरलता के बिना संयम की पात्रता ही नहीं आती है। यही बात अन्यत्र भी कही है कि "सोही य उज्जुभूयस्स, धम्मो युद्धस्स वि" । अर्थात् सरल हृदय वाले की ही शुद्धि होती है और शुद्धस्थान पर ही धर्म रह सकता है अतः साधु वही है जो जैसा विचारता है वैसा ही बोलता है, जैसा बोलता है वैसा ही आचरण करता है अर्थात् मनसा, वाचा, कर्मणा जो एक होता है वही अनगार है । अन्तःकरण सरल होने पर अन्य गुणों को टिकने के लिये भूमिका मिल जाती है अतः सरल स्वभावी क्रमशः सर्वगुणसम्पन्न बन सकता है। इसी तरह इस बात को विशेष पुष्ट करने के लिए 'श्रमायं कुवमाणे' यह विशेषण भी दिया गया है। अर्थात् माया द्वारा अपनी शक्ति का गोपन नहीं करते हुए संयमानुष्ठान करना चाहिये । यहाँ माया शब्द से संयम में शक्ति का गोपन करने का अर्थ लिया गया है। इस माया बल्ली को सर्व कायों की तथा भवभ्रमण की जड़ जानकर समूल नष्ट करना चाहिये ।
'जाए सद्धाए' इस सूत्र से सूत्रकार सदा जागृत रहने का उपदेश फरमाते हैं। इसका आशय यह है कि ज्या अङ्गीकार करते समय प्रायः करके वर्धमान परिणाम ही होते हैं बाद में संयमश्रेणी को अङ्गीकार करने पर वर्धमान - परिणाम, हीयमान परिणाम और अवस्थित परिणाम तीनों हो सकते हैं। वृद्धिका और हानिकाल एक समय से लेकर उत्कृष्ट से उत्कृष्ट एक अन्तर्मुहूर्त है । परिणामों की शृंखला अन्तर्मुहूर्त तक ही एकरूप रह सकती है पश्चात् उसमें परिवर्तन अवश्य होता है। अवस्थित परिणाम की स्थिति समय की है। यह परिणामों की धारा निश्चयष्टि से केवलिगम्य है । यद्यपि प्रवज्या अङ्गीकार करने के बाद कोई महाभाग्यवान् प्राणी प्रवर्धमान परिणाम वाला भी होता है क्योंकि जैसे २ श्रतज्ञान रूपी सागर में अवगाहन करता है त्यों त्यों उसकी संवेगभावना बढ़ती जाती है तो भी प्रायः ऐसे प्राणी विरले हैं - प्राय: करके परिणामों में आंशिक एवं अपेक्षाकृत हीनता आती है इसलिए सूत्रकार वैसी
प्रबल वर्धमान श्रद्धा रखने के लिये फरमाते हैं कि यावज्जीवन शंकाहीन होकर उसी श्रद्धा का पालन करें | अर्थात् त्याग ग्रहण करने के बाद सदा जागृत रहना चाहिये क्योंकि पहिले के संस्कारों द्वारा संयम में निर्बलता आजाने की संभावना रहती है। क्योंकि पूर्व संस्कार जब प्रबल होते हैं तब त्याग भाव, दृढवैराग्य और प्रबल सामर्थ्य क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। ऐसे कई उदाहरण बन चुके हैं जिनमें पूर्व संस्कारों की प्रबलता से आत्मा का पतन हुआ है। विचारों की जरासी मलिनता चारित्र की सुगंध को दूषित कर देती है। अतः वीरता पूर्वक अन्तर्द्वन्द्वों पर विजय पाने के लिये आत्मिक गुणों का विकास करते रहना चाहिये । सच्ची वीरता इसी का नाम है कि श्राभ्यन्तर शत्रुओं को जीतने के लिये आन्तरिक शस्त्रों का उपयोग करते हुए अपनी प्रबल श्रद्धा द्वारा अन्तर्द्वन्द्रों पर विजय प्राप्त की जाय ।
कहीं कहीं "विजहिता पुल्वसंजोगं" ऐसा पाठान्तर मिलता है - इसका अर्थ यह है कि माता-पिता र धन वैभव आदि पूर्व के संस्कारों को छोड़कर प्रबल श्रद्धा के साथ संयम - पालन करे। इसी आधार पर उपर्युक्त विवेचन समझना चाहिये ।
के सूत्र में यह बताते हैं कि भूतकाल में अनेक महापुरुषों ने इस मार्ग का अवलम्बन लेकर आत्म-कल्यास किया है:
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