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तृतीय अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
[ २७६
नहीं कहलाता । वह सत्य स्वाभाविक नहीं किन्तु बनावटी है। उससे यह प्रतीत होता है कि सत्य बोलने की हार्दिक इच्छा तो नहीं है परन्तु धर्मस्थान है अतएव झूठ न बोलने के लिए विवश है। अगर हृदय में सत्य की तन्मयता प्रकट हुई हो तो वह व्यक्ति जीवन व्यवहार में भी झूठ नहीं बोल सकता। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार घड़ी के चक्र के फिरने से अन्य पुर्जे और कांटे बराबर फिरते हैं उसी प्रकार एक क्रिया की शुद्धि से सारे जीवन की शुद्धि होनी चाहिए । इसी तरह एक दोष से सारा जीवन दूषित हुए बिना नहीं रह सकता। इसी कारण सूत्रकार ने यह कहा है कि जो क्रोध का त्यागी है वह मान को त्यागता है, वह मायाको व्यागता है यावत् मोह को त्यागता है । फलस्वरूप जन्म, मरण, नरक और तिर्यञ्च के दुख से मुक्त होता है ।
इस सूत्र का दो तरह से अर्थ घटित हो सकता है। प्रथम अर्थ तो त्याग रूप है जो कि पहिले भावार्थ में किया गया है। दूसरा अर्थ आचरण रूप भी होता है । "दंसी" ( दर्शी ) शब्द का अर्थ स्वरूप जानने वाला होता है और इसका अर्थ आचरण करने वाला भी होता है । पहिले अर्थ में " कोहदंसी"
अर्थ हुआ क्रोध के अनिष्ट परिणाम को जानकर उसे त्यागने वाला । दूसरे प्रकार के अर्थ की अपेक्षा क्रोध का आचरण करने वाला । दोनों तरह से अर्थ घटित होता है। प्रथम पक्ष में यह अर्थ घटित होता है कि जो क्रोध का त्याग करता है वह मान का त्याग करता है इत्यादि । दूसरे पक्ष में यह अर्थ होता है। कि जो क्रोध का आचरण करता है वह मान का आचरण करता है, जो मान का आचरण करता है वह माया का आचरण करता है, जो माया का आचरण करता वह लोभ का आचरण करता है, जो लोभ का आचरण करता है वह राग का आचरण करता है, जो राग का आचरण करता है वह द्वेष का आचरण करता है, जो द्वेष का आचरण करता है वह मोह का आचरण करता है, जो मोह का चरण करता है वह गर्भ में उत्पन्न होता है, जो गर्भ में उत्पन्न होता है वह जन्म धारण करता है और मरता है, जो मरता है वह नरक तिर्यञ्च में जाता है और दुख पाता है ।
दोनों प्रकार का अर्थ सुघटित है। दोनों का अभिप्राय एक है । यह बात जानकर साधक को क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह और इनके फल गर्भ, जन्म, मरण, नरक, तिर्यञ्च और दुखों से निवृत्त होना चाहिए। यह उपदेश सामान्य व्यक्तियों का नहीं है परन्तु जो द्रव्य और भावशस्त्रों से सर्वथा रहित हैं, जिन्होंने तीन लोक के पदार्थों को हाथ में रहे हुए आँवले की तरह स्पष्ट रूप से जाना है। जो सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं उन सत्पुरुषों का यह अनुभवपूर्ण उपदेश है । सूत्रकार यह कहकर सूचित करते हैं कि सत्पुरुषों के वचन श्रद्धा से स्वीकार करने चाहिए क्योंकि उनका उपदेश उनकी आज्ञा किसी स्वार्थ से या कामना से नहीं होती बल्कि एकान्त लोक-कल्याण ही उनका उद्देश्य होता है और उसी उद्देश्य से वे उपदेश फरमाते हैं अतः वह उपदेश स्वतः श्रद्धास्पद है। उसमें तर्क की गति नहीं है। तर्क वहाँ तक नहीं पहुंच सकती है ।
पूर्वोक्त क्रोधादि कषाय ही संसार के व दुख के कारण हैं। अतः जो साधक दुख से मुक्त होना चाहता है उसे चाहिए कि इन मूल कारणों को दूर करें क्योंकि जब तक कारण विद्यमान रहते हैं तब तक कार्य बना रहता है। कारण के चले जाने पर कार्य भी बिखर जाता है। कार्य को तोड़ने के लिए उसके कारणों को दूर करना आवश्यक है। दुखरूप कार्य का नाश करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि दुख कैसे और किससे उत्पन्न होता है । जब तक यह नहीं जाना जाता और जानकर जब तक उसके कारणों को दूर नहीं किया जाता तब तक दुख दूर नहीं हो सकता । जिस प्रकार ध्रुव काँटे को हाथ में लेकर कोई उसके मुख को पूर्व में रखने का प्रयत्न करे और इसके लिए वह उस काँटे को उँगली से दबाकर
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