________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
४३२ ]
[ आचाराङ्ग सूत्रम्
वहाँ तक नहीं उड़ती और बुद्धि वहाँ तक नहीं पहुँचती । वह दशा मात्र अनुभव गम्य है। जिस प्रकार गंगा आदमी गुड़ खाकर उसके रस का आस्वादन करता है लेकिन वह उसका वर्णन नहीं कर सकता । "वह रस का अनुभव करता है। इसी तरह यह अवस्था अनुभवगम्य है। गंगे के गुड़ की तरह यह अवाच्य है ।
यह मुक्त अवस्था अनिर्वचनीय है। शास्त्र, आगम, वेद, पुराण श्रुति ये सभी " नेति नेति” कह कर उसके वर्णन में असमर्थता व्यक्त करते हैं । सर्वज्ञ और सर्वदृष्टा भी उसका वर्णन नहीं कर सकते । यह विषय वाणी से अगोचर, कल्पनातीत और बुद्धि से परे है। यह सहज आनन्द केवल अनुभव-वेद्य है ।
वाच्य वस्तु में आकार, वर्ण, गन्ध, रूप, रस और स्पर्श होते हैं। मुक्त अवस्था में न आकार है, नव है, न गन्ध है, न रस है, न स्पर्श है, अतएव वह श्रवाच्य है । वह शुद्ध चैतन्य रूप, ज्योतिर्मय और सहजानन्द में लीन है।
वाच्य-वाचक का सम्बन्ध रूप, रस, गन्ध, स्पर्श वाले विषय में ही होता है । यह विषय मुक्तावस्था में नहीं है अतएव शब्द प्रवृत्ति नहीं है। न केवल शब्द की ही प्रवृत्ति नहीं है लेकिन ऊहापोह रूप तर्क की भी वहाँ प्रवृत्ति नहीं है । इसका कारण यह है कि वह अवस्था विकल्पातीत है इसलिए मनोव्यापार रूप त्पादिकी आदि चारों प्रकार की बुद्धि उसको नहीं जान सकती । मुक्त अवस्था में जीव सकल'कर्म कलङ्क से रहित होता है। वह एकरूप होता है। सूत्रकार ने "पडिट्ठाणस्स खेयन्ने" यह पद दिया है। इसका एक अर्थ यह होता है कि- श्रप्रतिष्ठान अर्थात् मोक्ष ( प्रतिष्ठान का अर्थ है रहना - जहाँ श्रदारिक शरीर आदि कोई शरीर न हो या जहाँ कर्म न हों वह अप्रतिष्ठान इस व्युत्पत्ति से अप्रतिष्ठान का अर्थ मोक्ष होता है ) उसके खेदज्ञ श्रर्थात् निपुण । तात्पर्य यह हुआ कि मोक्ष के स्वरूप के ज्ञाता हैं । अप्रतिष्ठान नामक नरक भी है । वह लोक के अधोभाग की सीमा है। उसके ज्ञाता हैं अर्थात समस्त लोक नाड़ी के स्वरूप के ज्ञाता हैं। दोनों ही अर्थों से यह प्रकट होता है कि सिद्ध आत्मा सम्पूर्ण ज्ञानमय है । वह सिद्धात्मा लोकान्त के एक कोस के छठे भाग क्षेत्र में अनन्त ज्ञान दर्शन युक्त अवस्थित है। शब्द, कल्पना बुद्धि, और तर्क की वहाँ गति क्यों नहीं है इसका कारण यह है कि वहाँ संस्थान ( आकार ) नहीं है। मुक्त जीव न 'बड़ा है न छोटा है न गोल है, न त्रिकोण है, न चौरस है। यह कहकर संस्थान का निषेध किया । न काला 'है, न नीला है, न लाल है, न पीला है, न सफेद है यह कहकर वर्ण का निषेध किया । न सुगन्ध वाला है न दुर्गन्ध वाला है यह कहकर गन्ध का निषेध किया । इसी तरह न तिक्त हैं यावत् न मधुर है यह कहकर रस का निषेध किया । न कर्कश है यावत् न रूक्ष है यह कहकर स्पर्श का निषेध किया । वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श तथा आकार से रहित है अर्थात् अमूर्त हैं। "न काउ" कहकर यह सूचित किया कि मुक्त जीव लेश्यारहित है अथवा देहरहित है । वेदान्तवादी कहते हैं कि "एक एव मुक्तात्मा तत्कायुमपरे क्षी -क्लेशा अनुप्रविशन्ति श्रादित्यरश्मयः इवांशुमन्तः” । अर्थात् जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्य में प्रविष्ट हो जाती हैं उसी प्रकार एक ही मुक्तात्मा के शरीर में दूसरे मुक्त होने वाले जीव प्रविष्ट हो जाते हैं। इसका • अर्थ यह है कि वेदान्ती मुक्तात्मा के शरीर होना मानते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। शरीर एक प्रकार की उपाधि है और मुक्त जीव उपाधिरहित है अतएव वह सशरीरी नहीं हो सकता । यह बताने के लिए कहा है कि मुक्त जीव देहरहित है ।
अरुहे:- मुक्त जीव पुनर्जन्मा नहीं है। उनके कर्मरूपी बीज दग्ध हो चुके हैं अतएव उससे भवरूपी नहीं उत्पन्न होता है। मोक्ष में गया हुआ जीव पुनः संसार में जन्म नहीं लेता । क्योंकि जन्म-मरण के चक्र से छूटने का नाम ही तो मोक्ष है। अगर पुनः जन्म होना शेष रह गया तो मुक्ति ही क्या हुई ?
For Private And Personal