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द्वितीय अध्ययन पंचमोद्देशक ]
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जिस प्रकार आकाश-गंगा के प्रवाह के विरुद्ध तैरना कठिन है, समुद्र को अपनी भुजाओंों से पार करना दुष्कर है, बालुका के निस्वाद ग्रासों को गले उतारना मुश्किल है और लोहे के जौ को चबाना कठिन है उसी प्रकार त्यागमार्ग भी अति दुसाध्य है ।
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काम दो प्रकार के हैं:: - ( १ ) इच्छाकाम और (२) मदनकाम | इच्छाकाम मोहनीय कर्म के हास्य रति आदि के कारण उत्पन्न होता है और मदनकाम भी मोहनीय के भेद-वेदों के उदय से प्रकट होता है। जबतक मोह का सद्भाव है तब तक दोनों प्रकार के कामों का उच्छेद अत्यन्त कठिन है। इसलिए मोह का त्याग करने के लिए जागृत होकर प्रयत्न करना चाहिए। ज्यों ज्यों मोह बढ़ता है त्यों त्यों भोगों और विषयों का त्याग दुष्कर होता जाता है । इसलिए मुमुक्षु प्राणी को मोह के त्याग में अल्पमात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिए क्योंकि काल अविरत गति से बीतता रहता है। आयुष्य अत्यन्त अल्प है । करोड़ों इन्द्रों की यह शक्ति नहीं कि आयुष्य के एक समय (क्षण) को भी बढ़ा सके । अतः हमेशा अपने आपको काल के मुख में पड़ा हुआ समझ कर धर्म का आचरण करना चाहिए । अल्पमात्र भी प्रमाद अत्यन्त भयङ्कर होता है ।
कामी पुरुष कामभोगों में अत्यन्त आसक्त होता है। ये विषय भोग अल्प काल तक ठहर कर अवश्य चले जाते हैं । जब विषयों का वियोग होता है तब वह विषयान्ध प्राणी अत्यन्त शोक करता है, विलाप करता है, अपनी मर्यादा और लज्जा को छोड़ देता है और पश्चात्ताप करता हुआ अत्यन्त पीड़ा प्राप्त करता है । अतः विवेकी प्राणियों को सोचना चाहिए कि चिरकाल तक ठहर कर भी आगे पीछे ये विषय भोग छोड़कर जाने वाले हैं, या वह स्वयं जरा और मृत्यु से गृहीत होकर इन विषयों को छोड़ने के लिए बाध्य होगा तो स्वेच्छा पूर्वक ही इनका त्याग क्यों न किया जाय ताकि मानसिक, शारीरिक और आत्मिक शान्ति का अनुभव हो सके । पराधीन होकर त्यागने से हृदयदाही संताप होता है अतः स्वेच्छा से इनका त्याग करना श्रेयस्कर है । प्राणी यौवन, धन और तन के मोह और मद से मतवाले होकर विषयों का सेवन करते हैं और जरा और मृत्यु के उपस्थित होने पर, भोगों का वियोग हो जाने से उनकी स्मृति से अत्यन्त पश्चात्ताप करते हैं परन्तु जब “चिड़ियों ने चुग खेत लिया तो पछताये क्या होता है?" : विवेकी पुरुषों का यह कर्त्तव्य है कि पानी के जाने के पहिले पाल बाँध लेवे । पानी के चले जाने पर पाल बांधने का कोई अर्थ नहीं होता श्रतः समय पर सावधान रहकर धर्म क्रिया करनी चाहिए।' विषयान्ध होकर बिना विचारे किये हुए कामों का परिणाम बड़ा भयंकर और हृदयदाही होता है। कहा है कि
सगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजात, परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । तिरभसताना कर्मणामाविपत्ते,
भवति हृदयदाही शल्य तुल्यो विपाकः ॥
अर्थात् —–बुद्धिमान का यह कर्त्तव्य है कि अच्छा या बुरा काम करने के पहिले उसके परिणाम को पूरी तरह विचार ले क्योंकि बिना विचारे किये हुए कार्यों का फल कांटे के समान हृदय को जलाने वाला होता है । अतएव सतत जागृत रहकर कामभोगों से विरक्त होना चाहिए तभी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शान्ति की अनुभूति हो सकती है ।
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