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तृतीय अध्ययन तृतीयोद्देशक ]
[ २५१
प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि साधक के मन में क्या शोक और क्या हर्ष ? वह हर्ष और शोक की भावना से परे हो जाता है। "इष्टाप्राप्तिविनाशोत्थो मानसो विकारोऽरतिः" अर्थात् इष्ट की प्राप्ति नहीं होने या इष्ट के विनाश से उत्पन्न होने वाला मानसिक विकार अरति है और 'अभिलषितार्थावाप्तिरानन्दः' अर्थात् इष्ट पदार्थ की प्राप्ति से होने वाला मानसिक विकार आनन्द है । जो व्यक्ति धर्मध्यान और शुक्लध्यान के सोपान पर चढ़ गया हो उसके लिए हर्ष-शोक के उपादान कारणों का ही अभाव हो जाता है अतः हर्ष और शोक की भावना ही उत्पन्न नहीं हो सकती है। अरति और आनन्द रूप भेद ही नहीं रह पाता है।
साधक अवस्था में कदाचित् हर्ष - शोक के प्रसंग उपस्थित हों तो अनासक्त भाव से उनका वेदन कर लेना चाहिए ।
यहाँ एक तर्क और हो सकती है कि शास्त्रों में अन्यत्र असंयम में रति और संयम में रति करने का उपदेश दिया है और यहाँ रति- अरति का निषेध किया गया है। क्या दोनों बातें परस्पर संगत नहीं हैं ? शास्त्र में यह असंगति क्यों ? इसका समाधान यह है कि यहाँ पर हर्ष और शोक रूप विकल्पों का निषेध किया गया है अर्थात् साधक के मन में अमुक अमुक संयोगों में हर्ष - शोक के भाव उत्पन्न हो सकते हैं जो संयम में चञ्चलता पैदा कर सकते हैं अतएव उनका निपेध यहाँ किया गया है। जो रतिरति की भावना संयम में चञ्चलता एवं व्यग्रता उत्पन्न करती है उसका तो निषेध किया गया है और जो संयम में रति और असंयम में रति का उपदेश दिया गया है इसका अभिप्राय यह है कि इससे आत्मिक उन्नति में बाधा नहीं होती श्रपितु यह आत्मा के विकास का कारण है । इस तरह शास्त्रों में दोनों की संगति बतलायी गई है इसलिए यह तर्क ठीक नहीं है।
योगी के लिए क्या हर्ष और क्या विषाद ? वह इन दोनों से परे है। कदाचित् हर्ष और शोक भाव पैदा हो जाय तो अनासक्त होकर उनको सहन करने का सूत्रकार फरमाते हैं ।
-शोक की भावना इन्द्रियों एवं मन पर परिपूर्ण विजय न पाने से उत्पन्न होती है अतएव पुनः पुनः सूत्रकार इन्द्रियविजय का उपदेश फरमाते हैं:-साधक का यह कर्त्तव्य है कि वह हास्य, कुतूहल आदि को छोड़कर इन्द्रियविजय करे । जिस प्रकार कछुआ सहसा अभेद्य पीठ के तले अपने आपको दबाकर बाह्य आक्रमण से बचता है इसी तरह आत्माभिमुख होने के लिए सतत पुरुषार्थ रूपी ढाल बनाकर • साधक बाह्य आक्रमण से बचे। कछुए के समान अपनी इन्द्रियों का गोपन करे । इन्द्रियों का सम्यग्गोपन होने से उनकी शक्ति केन्द्रित हो जाती है। वह केन्द्रित शक्ति परम पुरुषार्थ मोक्ष को सिद्ध करती है ।
पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि ?
संस्कृतच्छाया-- हे पुरुष ! त्वमेव तव मित्रं किं बहिर्मित्रमिच्छसि ?
शब्दार्थ --- पुरिसा = हे पुरुष | तुममेव=तू ही । तुमं=तेरा | मित्तं मित्र है । बहिया= बाहर के । मित्तं मित्र की । किं इच्छसि = क्यों इच्छा करता है ।
भावार्थ - हे जीव ! तू स्वयं ही तेरा मित्र है । बाहर के मित्र की इच्छा क्यों करता है ?
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