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चतुर्थ अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
[ ३३३ परावर्तन काल में वह अवश्य पुनः प्राप्त होता है और वह जीव अवश्य आराधक होकर मोक्ष में जाता है। समकित के नष्ट हो जाने पर पुनः समकित नहीं प्राप्त हो यह असंभव बात है ।
इस सूत्र में यह कहा गया है कि कई साधकों के पूर्व जन्म में उपार्जित कर्म इतने घने और चिकने होते हैं कि वे धर्म के सन्मुख भी नहीं हो सकते हैं। पूर्व जन्म के कर्म भी समकित में बाधक होते हैं। जीवात्मा कई कार्य करने के लिए प्रयत्न करता है लेकिन वह सफल नहीं होता है इसका कारण पूर्वकर्मों का संयोग है । पूर्व-घन-कर्मों की वजह से भी जीव धर्माराधना नहीं कर सकता है। धर्माराधन के योग्य संयोगों का मिलना अथवा न मिलना यह भी पूर्व-जन्म के कर्मों को ऊपर अवलम्बित है। किसी प्राणी के कर्म ऐसे होते हैं कि उसे अनायास ही सब साधन मिल जाते हैं और एक-एक प्राणी ऐसे भी होते हैं जिन्हें भरसक प्रयत्न करते हुए भी साधन उपलब्ध नहीं होते हैं । संयम की आराधना कर सकने के योग्य संयोग की प्राप्ति होना सरल काम नहीं है । युग-युग के सतत प्रयत्न के पीछे जड़ वृत्ति को परास्त करके आत्म-वृत्ति को विकसित करने का अवसर मिलता है । संयम का मार्ग बाहर से जितना सुन्दर, सरल और सहजसाध्य प्रतीत होता है उतना ही यह कठिन और कष्ट-साध्य है फिर भी इसी मार्ग पर आये बिना इच्छित फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसके लिए तो जल्दी या देर से इसी मार्ग पर आना पड़ेगा। संयम-पालन का अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ है यह जानकर साधक को प्रमाद नहीं करना चाहिए । कोटिभव दुर्लभ चारित्र प्राप्त हुआ है इसका महत्व समझ कर अप्रमत्त भाव से इसकी सम्यग् आराधना करनी चाहिए।
अथवा "जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुओ सिया” इसका अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है-जिसको पूर्व में भोगे हुए सांसारिक सुखों का स्मरण नहीं आता है और जो भविष्य में होने वाले दिव्याङ्गनादि स्वर्ग-सुख की अभिलाषा नहीं करता है वह वर्तमान सुखों में आसक्ति कैसे रख सकता है ? अर्थात् नहीं रख सकता है।
इस सूत्र के पहिले के सूत्र में प्रमादी का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह कर्मों के आस्रव के कारण रूप विषयों में आसक्त होकर प्रपञ्च और बन्धनों से मुक्त नहीं हो सकता है । यहाँ इसको विपर्यय रूप से कहा गया है कि जो व्यक्ति पूर्व में भोगे हुए सुखों का स्मरण करके उन्हें पुनः प्राप्त करने की अभिलाषा नहीं रखता है और न आगे होने वाले स्वर्गादि के सुखों की आशा करता है वह व्यक्ति इस वर्तमान काल के सुखों के प्रति आसक्त नहीं हो सकता है। वह तो सांसारिक सुखों से बिल्कुल निरपेक्ष होता है। ऐसा व्यक्ति ही प्रपदों और बंधनों से मुक्त हो सकता है । वही जन्म-मरण की परम्परा से छूट सकता है। .
सांसारिक सुखों से निरपेक्ष होकर जो व्यक्ति सावद्य अनुष्ठान से निवृत्त होते हैं वे ही प्रज्ञावान् और बुद्ध हैं । जो भोगाभिलाषा से निवृत्त है वह प्रज्ञावान् है । प्रज्ञावान है इसलिए तत्त्वदर्शी है । तत्त्वदर्शी हे अतएव सावद्य अनुष्ठान से निवृत्त है। जिसके अन्तःकरण में जीवाजीव का विवेक और तत्त्वज्ञान का प्रकाश स्फुरित होता है उसका व्यवहार भी उतना ही पवित्र होता है। वह अपने ज्ञान के प्रकाश और हृदय की अनुभूति से यह जानता है कि सावद्य अनुष्ठान का परिणाम अति अनिष्ट होता है। पापिष्ठवृत्ति द्वारा जीवात्मा बन्धनों-बेड़ियों में बँधता है, चाबूक आदि के द्वारा वध किया जाता है, प्राणघातक दण्ड से दण्डित होता है और शारीरिक एवं मानसिक भयङ्कर असह्य कष्टों का अनुभव करता है । यह जानकर परमार्थी और तत्त्वज्ञानी ऐसी वृत्तियों से दूर रहते हैं । सूत्रकार उनकी अनारम्भ प्रवृत्ति की प्रशंसा की करते हुए कहते हैं कि उनका यह अहिंसक पवित्र व्यवहार कितना सुन्दर, सत्य और शिवरूप है।
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