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उपधानश्रुताख्य नवम अध्ययन - चतुर्थ उद्देशक:( महावीर की तपश्चर्या)
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गत उद्देशक में भगवान् की अनुपम उपसर्ग-सहिष्णुता का वर्णन किया गया है। भगवान् न केवल पर- कृत उपसर्गों को ही सहन करते थे वरन् तपश्चर्या के हेतु स्वेच्छा से भी दुखों का आह्वान करते थे । तपश्चर्या धर्म का अनिवार्य अङ्ग है। हिंसा, संयम और तप की त्रिपुटी ही धर्म कहलाती है । भगवान् के साधक - जीवन में धर्म ताने-बाने की तरह बन गया था। अथवा यों कहना चाहिए कि भगवान् साक्षात् धर्ममय बन गये थे । धर्म के दो तत्त्व अहिंसा और संयम भगवान के जीवन में किस प्रकार श्रोत-प्रोत हो गये थे यह पहले बताया जा चुका है। इस उद्देशक में उनके तप का वर्णन किया जाता है।
आत्मा की सुषुप्त शक्तियों को जागृत करने के लिए तप की आवश्यकता को सब महापुरुषों ने स्वीकार किया है | श्रमण भगवान् महावीर ने तो तपश्चर्या पर अधिक भार दिया और वे साढ़े बारह वर्ष पर्यन्त कठोर तपश्चर्या में लीन रहे इसीलिए वे 'दीर्घ तपस्वी महावीर' के रूप में विख्यात हुए ।
यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि महाश्रमण महावीर ने अविवेकमय तप को महत्त्व नहीं दिया है अपितु ज्ञान और ध्यानमय तप को ही उन्होंने महत्त्व प्रदान किया है। विवेकहीन तपश्चर्या से श्रात्मसंशोधन नहीं होता अतः उसका कोई आध्यात्मिक महत्त्व नहीं है। भगवान् ने उसे बाल-तप बताया है । भगवान् की साधना में ज्ञान ध्यान युक्त तप का प्रधान स्थान रहा है इसी लिए वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान् बन सके । भगवान् की तपश्चर्या का वर्णन आरम्भ करते हुए सूत्रकार कहते हैं:
प्रोमोयरियं चाइ पुट्ठेऽवि भगवं रोगेहिं । पुट्ठे वा अपुढे वा नो से साइजई तेहच्छं ||१|| संसोहणं च वमणं च गाय-भंगणं च सिणाणं च । संबाहणं च न से कप्पे दन्तपक्खालणं च परिन्नाय ॥२॥ विरए गामधम्मेहिं रीयइ माहणे बहुवाई | सिसिरम्मिं एगया भगवं छायाए भाइ श्रासी य ॥ ३॥ यायावर य गिम्हाणं श्रच्छ उक्कडए अभितावे । दु जावइत्थ लूणं श्रयणमंथुकुम्मासेणं ॥४॥
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