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[आचाराङ्ग-सूत्रम् तं परिणाय मेहावी नेव सयं पुढविसत्यं समारंभेजा, नेवण्णे पुढविसत्थं समारंभावेजा, नेवराणे पुढविसत्थं समारंभन्ते समणुजाणेजा। जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे ति बेमि (१८)
संस्कृतच्छाया-तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं पृथिवीशस्त्रं समारभेत नैवान्यः पृथिवी शस्त्रं समारम्भयेत्, नैवान्यान्पृथिवशिवं समारभमाणान् समनुजानीयात् । यस्येते पृथिवीकर्मसमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मेति वर्वामि ।
शब्दार्थ-तं यह । परिएणाय=जानकर । मेहावी-कुशल व्यक्ति । सयं-स्वयं। पुढविसत्थं पृथ्वीकाय के शस्त्र का । न समारंभेजा आरम्भ न करे । नेवण्णेहि न दूसरों से । पुढविसत्थं समारंभावेजा-पृथ्वीकाय की हिंसा करावे । नेवएणे पुढविसत्थं समारंभंते न पृथ्वीकाय की हिंसा करते हुए दूसरों को । समणुजाणेजा अच्छा समझे । जस्स-जिसको । एते-ये। पुढविकम्मसमारंभा पृथ्वीकाय के हिंसादि कार्य । परिणाया भवंति ज्ञात होते हैं। से हु-वही। मुणी-मुनि । परिएणायकम्मे परिज्ञा (विवेक) वान् है । त्ति बेमि=ऐसा मैं कहता हूँ।
भावार्थ-इस प्रकार हिंसा के परिणाम को जानकर कुशल व्यक्ति स्वयं पृथ्वीकाय की हिंसा न करे, न दूसरों से करावे, न करते हुए अन्य को अच्छा समझे । जिसको ये श्रारम्भ के भेद ज्ञात और प्रत्याख्यात हैं वही सच्चा परिज्ञावान् (विवेकवान्) मुनि है, ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन-उपसंहार करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि पृथ्वीकाय का आरम्भ तीन करण तीन योग से और तीन काल की अपेक्षा से नहीं करता है तथा हिंसा को ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से सर्वथा छोड़ता है वही वस्तुतः सञ्चा विवेकी मुनि यहा जाता है । यद्यपि यह कथन अनगारों की अपेक्षा से हैं तदपि गृहस्थों के लिए भी देशतः है ही। यद्यपि जीवन-निर्वाह के लिये थोडी बहुत हिंसा अनिवार्य है तो भी बन सके वहाँ तक आसक्तभावना कम से कम रखनी चाहिये । कर्मबन्धन का दारमदार प्रायः आसक्ति पर है इसलिये गृहस्थों को भी पृथ्वीकोय समारंभ में यथाशक्य विवेक रखना आवश्यक है।
इति द्वितीयोद्देशकः
इति द्वितीयादेशकः
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