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[ श्रधाराङ्ग-सूत्रम्
अपेक्षा नहीं रहती । वह स्वयं दूसरों का अवलम्बन बन जाता है। ऐसा व्यक्ति यह निरालम्बन भावना भाने में समर्थ होता है कि तीर्थंकर की श्राज्ञां के सिवाय अन्य कोई भी अवलम्बन नहीं हो सकता । संसारसागर में डूबते हुए व्यक्ति के लिए तीर्थंकर की आज्ञा ही अवलम्बन है । इसके सहारे ही प्राणी भवसागर से पार हो सकते हैं । आज्ञाराधन का फल भवसागर से पार हो जाना है ।
पवारणं पवायं जाणेज्जा, सहसम्मइयाए, परवागरणेणं अन्नेसिं वा श्रन्तिए सोचा ।
संस्कृतच्छाया — प्रवादेन प्रवादं जानीयात्, सहसम्मत्या, परव्याकरणेन, अन्येषामन्ति के श्रुत्वा ।
शब्दार्थ - पवारण-आचार्य - परम्परा के उपदेश से । पवायं सर्वज्ञ के उपदेश को । सहसम्मइयाए=जातिस्मरण ज्ञान द्वारा | परवागरणेणं सर्वज्ञों के अनुभवी वचनों द्वारा | अन्नेसिं= अन्य महापुरुषों से । सोच्चा = सुनकर । जाणेज्जा = जानना चाहिए ।
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भावार्थ -गुरु-परम्परा के उपदेश से सर्वज्ञ के उपदेशों का ज्ञान करना चाहिए ( श्रथवा सर्वज्ञ के उपदेश को दृष्टिबिन्दु में रखते हुए अन्य तीर्थियों के प्रवाद की परीक्षा करनी चाहिए । ) यह प्रवाद तीन प्रकार से जाना जा सकता है- -जा - जातिस्मरण ज्ञान द्वारा ( २ ) सर्वज्ञ के वचनों द्वारा (३) अन्य महापुरुषों के वचनामृतों के श्रवण के द्वारा |
विवेचन - पूर्ववर्ती सूत्र में आज्ञा की आराधना करने का कहा गया है। यह कहने पर यह प्रश्न हो सकता है कि तीर्थकरों की श्राज्ञा क्या है ? किस आज्ञा की आराधना करने से भवपरम्परा का पार पाया जा सकता है ? उस आशा को जानने का उपाय क्या है ? इन प्रश्नों का उत्तर इस सूत्र में दिया गया है ।
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सूत्रकार फरमाते हैं कि प्रवाद को प्रवाद से जानो । अर्थात् सर्वज्ञ तीर्थंकर देवों की क्या आज्ञा है ? उनका क्या उपदेश है ? यह बात आचार्य परम्परा के उपदेश से समझनी चाहिए। अर्थात् सर्वज्ञ प्रभु जब साक्षात् विराजमान नहीं होते हैं तब उनके उपदेश का विस्तार और प्रकाश करने वाले श्राचार्य होते हैं । वे गीतार्थ आचार्य सर्वज्ञ के उपदेशों की व्याख्या करते हैं । उन गीतार्थ आचार्यों के उपदेश के द्वारा वीतराग की आज्ञा को जानकर उसकी आराधना करनी चाहिए। सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान के उपदेश आचार्य परम्परा से ही वर्त्तमान में उपलब्ध होते हैं । श्राचार्य - परम्परा ही सर्वज्ञ के उपदेश को जब तक उनका शासनकाल रहता है तब तक टिकाती है ।
टीकाकार ने "प्रवाद को प्रवाद से जानो" इसका यह भी अर्थ किया है कि सर्वज्ञ के उपदेश को दृष्टि-बिन्दु में रखकर अन्यवादियों के बाद की परीक्षा करो। इसका आशय यह है कि किसी बात को केवल किसी के आग्रह से न मानो किन्तु अपनी विवेक बुद्धि से उसकी जाँच करो । अगर जाँच करने पर तुम्हें वह योग्य प्रतीत हो तो उसका ग्रहण करो । किसी के बाह्य आडम्बर को देखकर या अणिमा आदि बाह्य ऐश्वर्य को देखकर उसके वचन पर विश्वास न कर लेना चाहिए क्योंकि यह बाह्य ऐश्वर्य और आडम्बर तो माया और इन्द्रजालियों में भी देखा जाता है । किसी के वचनों को प्रमाणभूत मानने के
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