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[ आचाराङ्ग-सूबम्
माया - माया नामक मोहनीय कर्म से उत्पन्न होने वाली, मम, वचन और काया की कुटिलता रूपी आत्मा की विकृत परिणति माया है । माया संसार के मूल को सींचती है, माया अनेक दोषों को जन्म देती है । जहाँ हृदय की सरलता है वहीं धर्म की भूमिका है और माया धर्म की भूमि को ही नष्ट कर देती है। मायावी पुरुष अप्रतीति के पात्र होता है । उसका मन सदा मैला रहता है । श्रतः उज्ज्वल मोक्ष को चाहने वाले भव्यात्माओं को इसका निग्रह करना चाहिए । अन्तःकरण में उगी हुई माया रूपी वल्लरी को सरलता रूपी कुल्हाड़ी से छेद कर फेंक देना चाहिए ।
लोभ - लोभ मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला, ममता और तृष्णारूप आत्म-परिणाम लोभ है । यह लोभ पाप का बाप है । इसी के कारण बाह्य पदार्थों में आकर्षण मालूम होता है और श्रात्मरमण में बाधा पहुँचती है । यह लोभ संसार को दुखमय बनाता है। इसके कारण भयंकर युद्ध लड़े जाते हैं और करोड़ों मानवों का संहार किया जाता है। यह बड़े २ त्यागी और साधु कहे जाने वालों के हृदय में भी गुप्त रूप से सूक्ष्मतया बना रहता है । सामान्य जन तो इसके चक्कर में पड़े ही हैं। इस कषाय को जीतने के लिए मुमुक्षु को पूरा ध्यान रखना चाहिए।
इस प्रकार ये चार कषाय जन्ममरण रूप संसार के मूल का सिञ्चन करते हैं । यहाँ यह कहा जा सकता है कि चार कषायों में पहिले क्रोध को और अन्त में लोभ को स्थान क्यों दिया गया ? यही क्रम रखने का क्या प्रयोजन है ?
इस प्रश्न का टीकाकार ने इस प्रकार समाधान किया है कि इन कषायों का क्षय और उपशम इसी क्रम से होता है। लोभ का क्षय सबसे अन्त में होता है। सूक्ष्म सम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में भी संज्वलन लोभ शेष रह जाता है। इन चार कषायों में प्रथम क्रोध, फिर मान, पश्चात् माया और अन्त में लोभ का क्षय अथवा उपशम होता है इस अपेक्षा से कषायों का यही क्रम रक्खा गया है।
क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों की तरतमता देखी जाती है। किसी को ऐसा क्रोध आता है कि वह बड़ी कठिनाई से शान्त होता है और किसी को क्रोध आ जाता है लेकिन थोड़े ही समय बाद उसे अपने कार्य पर पश्चात्ताप होता है। मानना पड़ेगा कि दोनों व्यक्तियों के क्रोध में अन्तर रहा हुआ है । इस अन्तर को स्पष्ट समझाने के लिए कषायों में से प्रत्येक के चार २ भेद बतलाये गये हैं । वे ये हैं:--(१) अनन्तानुबंधी (२) प्रत्याख्यानावरण ( ३ ) प्रत्याख्यानावरण और ( ४ ) संज्वलन |
अनन्तानुबन्धी-जिस कषाय के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता है उसे अनन्तानुबंधी कहते हैं । यह जीव के सम्यक्त्व गुण का घात करता है। जबतक अनन्तानुबन्धी कषाय हैं वहाँ तक सम्यक्त्व नहीं हो सकता । यह कषाय जीवन पर्यन्त बना रहता है। इसके उदय से जीव प्रायः नरक गति में जाता है ।
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ को समझाने के लिए आचार्यों ने दृष्टान्तों की योजना की है जिनसे इनका स्वरूप और भेद हृदयंगम हो जाता है । वे ये हैं:
क्रोध के कारण दिल का भेद हो जाता है इसलिए मिलन के आधार से दृष्टान्त कहते हैं - जिस प्रकार पर्वत में दरार पड़ने से वह दरार नहीं मिटती है उसी प्रकार जो क्रोध कभी शान्त न हो और जीवनभर बना रहे वह अनन्तानुबन्धी क्रोध है मान में कठोरता है अतः कठोरता की तरतमता का दृष्टान्त
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