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द्वितीय अध्ययन षष्ठ उद्देशक ]
[ १६७ - भावार्थ हे जम्बू ! (उपदेशक को श्रोताजनों के अभिप्राय, धर्म, विचार वगैरह जानने के बाद उपदेश देना चाहिए) अन्यथा सम्भव है कि वे उपदेश को सुनकर अपना अपमान समझे और क्रुद्ध होकर उपदेशक को मारने लगे । उपदेश देने की विधि को जाने बिना उपदेश देने में कल्याण नहीं है । (यह भी जानना आवश्यक है कि) यह पुरुष कैसा है, किस देव को नमस्कार करता है, इसका कौनसा धर्म या पंथ है ? इन बातों का विचार कर उपदेश देना चाहिए। ऐसे उपदेश से संसार के ऊर्ध्व, निम्न और तिर्यग् भाग में रहे हुए और कर्म-बन्धनों से बंधे हुए जीवों को जो पराक्रमी पुरुष मुक्त कर सकते हैं वे ही प्रशंसा के पात्र हैं।
विवेचन-उपदेशक को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव देखने के बाद उपदेश देना चाहिए। अवसर को पहिचाने बिना दिया गया उपदेश अनर्थों की जड़ हो सकता है। राजादि को उपदेश देते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि यह राजा किस अभिप्राय वाला है ? किस दर्शन में श्राग्रह रखता है ? मध्यस्थबुद्धि वाला है या संशय वाला है या शंका रहित है ? स्वयं कदाग्रही है या अन्य वादियों द्वारा कदाग्रही बनाया गया है ? राजा अगर कदाग्रही हो तो वह साधु के स्वमत विरुद्ध उपदेश को सुनकर अपना अपमान समझकर क्रुद्ध होकर साधु की तर्जना द्वारा या ताडन आदि के द्वारा हीलना कर सकता है और मार भी सकता है इससे स्वदर्शन की लघुता होती है। इसलिए विधि और अवसर को देखे बिना उपदेश देना ठीक नहीं है । इससे ऐहिक बाधा भी होती है और परलौकिक लाभ भी नहीं होता है।
यद्यपि पर-कल्याण के लिए धर्मोपदेश देने वाले साधु को कल्याणकारी फल होता है तदपि वक्ता यदि सभा और श्रोताओं को पहचाने बिना धर्मकथा करने लगे तो इसमें कल्याण नहीं है। अवसर पहचाने बिना द्वेषयुक्त खण्डनात्मक उपदेश करने से लाभ के वदले हानि ही उठानी पड़ती है। दूसरी बात श्रोताओं को देखकर तदनुकूल उपदेश देना योग्य होता है। विद्वानों की सभा में विद्वत्तापूर्ण और पक्ष, हेतु, दृष्टान्त पूर्वक प्रवचन करना चाहिए और साधारण सभा में जिस तरह मनुष्यों को बोध हो उस विधि से उपदेश देना चाहिए। ... उपदेश देते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह श्रोता किस प्रकृति का है ? यह किस देव की उपासना करता है ? किस धर्म या मत को मानता है ? इसकाध्येय क्या है ? इन बातों को मानसशास्त्र द्वारा पहिचान कर उसके उपकार के लिये विधिपूर्वक उपदेश देना ठीक होता है। यह अवलोकन करना आवश्यक है कि प्रश्न पूछने वाला अथवा श्रोता किस भावना से प्रश्न पूछता है या धर्म-श्रवण करता है ? यह मिथ्यादृष्टि है या भद्रिक है ? जिज्ञासा बुद्धि से पूछता है या अन्यदृष्टि से ? तात्पर्य यह है कि धर्मकथा करने वाला (उपदेशक) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव द्वारा श्रोताओं का पूरा अवलोकन करे। द्रव्य से सभा को पहिचाने । क्षेत्र से देखे कि यहां किस पंथ के लोग विशेष हैं-किसका प्रभाव विशेष है ? समय को देखे कि-अभी कैला जमाना है ? सुभिक्ष है या दुर्भिक्ष ? भाव से देखे कि सुनने वालों के अभिप्राय कैसे हैं ? इस प्रकार पूर्ण विचार कर धर्मकथा करनी चाहिये । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और स्वशास्त्र और परशास्त्र का ज्ञाता हो ऐसा दीर्घदृष्टि, समदर्शी और ज्ञानी पुरुष ही उपदेश देने का अधिकारी है। जिसे इस प्रकार का बोध न हो उसे उपदेश नहीं देना चाहिए। क्योंकि अविधि से उपदेश देना प्रवचन की हीलना करना है और इससे कर्मबन्धन होता है। विधि को जाने बिना उपदेश देने की अपेक्षा मौन करना श्रेयस्कर है । कहा भी है:
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