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अष्टम अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
[ ४६
यथायथा ऽर्थाश्चिन्त्यन्ते विविच्यन्ते तथातथा ।
यद्येतत्स्वयमथेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ॥ अर्थात्-शरीर, पदार्थ, इन्द्रियाँ आदि सर्व भौतिकदृश्य हैं। सब भूतों का विकार ही है तदपि मन्द अन्य लोक और आत्मा का कथन करते हैं । जैसे-जैसे पदार्थों का विचार करते हैं वैसे-वैसे वे अभावरूप मालूम होते हैं । अगर पदार्थों को यह शून्यता ही रुचती है तो हम क्या करें ? यह मान्यता चार्वाक दर्शन-नास्तिक परम्परा की है।
धुवे लोए-यह मान्यता सांख्यदर्शन की है । लोक नित्य ही है । इसका कभी उत्पाद और विनाश नहीं होता। केवल आविर्भाव और तिरोभाव होता है। जो वस्तु असत् है वह कदापि उत्पन्न नहीं हो सकती और जो सत् है वह कदापि नष्ट नहीं हो सकती। उनका कथन इस प्रकार है:
नासतो जायते भावा नामावा जायते सतः। अर्थात्-असत् कभी उत्पन्न नहीं होता और सत् का कभी अभाव नहीं होता है । अतएव यह लोक सदा नित्य ही है।
अधुवे लोए-यह लोक अनित्य ही है यह मान्यता बौद्धदर्शन की है। बौद्ध यह मानते हैं कि प्रत्येक पदार्थ क्षणिक ही है । पदार्थों का स्वभाव ही क्षण-विध्वंसी है । कोई विनाश का कारण नहीं है। अगर पदार्थ क्षणविध्वंसी न हो तो उसका कभी नाश न होना चाहिए । जिसका स्वभाव प्रथमक्षण में ही विनश्वर है नहीं तो वह विनाश के कारणों के आने पर भी नष्ट नहीं हो सकता । अगर घट विनश्वर स्वभाव वाला नहीं है तो वह मुद्गरादि के प्रहार से भी नष्ट नहीं होना चाहिए । किन्तु वह नष्ट होता है। यह नष्ट होने का स्वभाव पहिले से ही है अतएव यह सिद्ध हुआ कि पदार्थ क्षणिक ही उत्पन्न होता है। प्रतिक्षण पदार्थ नष्ट हो रहा है और नवीन उत्पन्न हो रहा है। यह लोक प्रतिक्षण नवीन उत्पन्न होने और नष्ट होने के कारण अनित्य ही है। नित्य पदार्थ कोई क्रिया नहीं कर सकता अतएव लोक अनित्य ही है।
साइए लोए-इस लोक की आदि है। जिसकी आदि होती है उसका बनाने वाला भी कोई होता है। लोक की रचना के विषय में विविध मान्यताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। कोई मानते हैं कि यह लोक देव द्वारा उत्पन्न हुआ है। कोई कहते हैं यह लोक ईश्वर द्वारा बनाया गया है। कोई कहते हैं प्रधान (प्रकृति) द्वारा इस लोक की रचना हुई है। महर्षि मनु का कथन है कि जगत् की आदि में अकेला स्वयंभू ही था। वह अकेला ही रमण कर रहा था। दूसरे किसी की इच्छा हुई । उसने ज्यों ही यह विचार किया कि दूसरी वस्तु शक्ति उत्पन्न हो गई । उसके पश्चात् जगत् बन गया । यह चराचर समस्त विश्व अण्डे से उत्पन्न हुआ है। वे कहते हैं किः
श्रासीदिदं तमोभूतमप्रज्ञानमलक्षणम् ।
अप्रतळमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ अर्थात्-सृष्टि के पहिले यह जगत् अन्धकार से व्याप्त था, अज्ञात और लक्षणहीन था। वह विचार से बाहर और अज्ञेय था, चारों ओर से सोया हुआ सा-शान्त था । संसार तब सब पदार्थों से
शून्य था । तब ब्रह्मा ने पानी में एक अण्डा उत्पन्न किया । अण्डा धीर-धीरे बढ़ता हुआ बीच में से फट गया। उसके दो भाग हो गए । एक से ऊर्ध्व लोक बन गया और दूसरे से अधोलोक की उत्पत्ति हो गई।
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