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नवम अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
[ ५६३
दिया था || || किसी समय कोई व्यक्ति परस्पर कामादि कथा में लीन हों तो उनकी बात सुनकर भी ज्ञातपुत्र महावीर न हर्ष का अनुभव करते, न शोक का । वे मध्यस्थभाव धारण करते । (ऐसे भाव में रहते मानों उन्होंने वह बात सुनी ही न हो ।) ऐसे अनुकूल-प्रतिकूल भयंकर परीषह आने पर भी वे उनका विचार न करते हुए संयम में विचरण करते थे ॥ १० ॥
विवेचन - प्रतिकूल संयोगों की अपेक्षा अनुकूल संयोगों में फिसल पड़ने की अधिक सम्भावना रहती है। अनुकूल उपसर्गों पर विजय प्राप्त करना बहुत कठिन होता है। कोई गाली दे तो उसे सहन कर लेना आसान है। किन्तु कोई तारीफ करे तो उसे सुनकर हर्ष का अनुभव न करना कठिन है। इसीलिए सूत्रकार ने कहा है कि अनुकुल संयोगों में अविचल रहना साधारण जनों के लिए सरल नहीं है। कोई अभिवादन करे - नमस्कार करे उसके साथ नहीं बोलना रूप उदासीन व्यवहार करना बड़ा कठिन है । श्रभिवादन और तारीफ करने वाले के साथ ऐसा उदासीन वर्ताव करना उच्चकोटि की निस्पृहता का सूचक है । साधारण प्राणियों में ऐसी निस्पृहता का आना अत्यन्त कठिन है । भगवान् अपने को अभिवादन करने वाले के प्रति भी इतने frege थे कि वे उससे भाषण भी नहीं करते। इसी तरह भगवान् अभिवादन के भूखे भी न थे जो अभिवादन न करने वाले पर कोप करते । भगवान् तो प्रशंसा और मान से सर्वथा निस्पृह थे । भगवान् प्रतिकूल परीषद्दों को भी समभावपूर्वक सहन करते थे । अनार्य देश में पापात्माओं ने उन्हें डंडों से मारा, उनके बाल नौंचे तो भी वे समभावपूर्वक सहन करते रहे । परीषह और उपसर्गों को कर्म का साधन मानकर भगवान् शान्तभाव से सब सहते रहे । कैसी अनुपम है प्रभु की सहिष्णुता ! कैसा अद्भुत है प्रभु का आत्मबल ! कैसा अनोखा है प्रभु का समभाव ! शेष स्पष्ट ही है अतः विवेचन की आवश्यकता नहीं ।
अवि साहिए दुवे वासे सीोदं प्रभुच्चा निक्खते । एगत्तगए पिहियचे से हिन्नायस सन्ते ॥। ११॥ पुढविं च श्राउकायं च तेउकायं च वाउकायं च । पणगाई बीहरियाई तसकायं च सव्वसो नच्चा ॥ १२॥ एयाई सन्ति पडिले हे चित्तमन्ताई से भिन्नाय | परिवजिय विहरित्था इय संखाय से महावीरे ||१३॥
संस्कृतच्छाया — अपि साधिके द्वे वर्षे शीतोदकमभुक्त्वा निष्क्रान्तः ।
एकत्वगतः पिहिताचः सोऽभिज्ञातदर्शनः शान्तः ||११|| पृथिवीञ्चयञ्च तेजस्कायञ्च वायुकायञ्च । पनकानि बीज हरितानि त्रसकायञ्च सर्वशो ज्ञात्वा ॥ १२ ॥ एतानि सन्ति प्रत्युपेक्ष्य चित्तवन्ति सोऽभिशाय । परिवर्ज्य विहृतवान् इति संख्याय स महावीरः ॥ १३॥
शब्दार्थ — अवि = तथा | साहिए दुवे वासे दो वर्ष से कुछ अधिक काल तक । सौचोद= सचित्त जल का । अभुच्चा = उपभोग नहीं करके । निक्खन्ते = प्रत्रजित हुए । से वह भगवान्
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