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अपण द्वितीयोदेशक ]
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शेष रह जाता है तो वे मुक्तात्मा कैसे हो सकते हैं ? आत्मा का सम्पूर्ण विकास होना ही तो मुक्ति है । जैनदर्शन ने मुक्तात्मा और परमात्मा में भेद नहीं माना है। इसकी दृष्टि से मुक्तात्मा ही परमात्मा है और प्रत्येक व्यक्ति कर्मों के बन्धन को तोड़कर जीबात्मा से परमात्मा बन सकता है।
प्रस्तुत सूत्र में कर्मों को आत्मा से पृथक करने का उपदेश दिया गया है। कर्मों ने ही श्रात्मा की विकृति कर रखी है । कर्मों ने अपने भूलभुलैये में श्रात्मा को फँसा रखा है। कर्मरूपी लुटेरों ने आत्मारूपी साहूकार की ज्ञान, दर्शनरूपी सम्पत्ति को लूटकर बन्धनों में बाँध रक्खा है। आत्मा की ऐसी दुर्दशा हो गयी है कि वह इन लुटेरों के डर के कारण अपनी शक्ति को भूल बैठा है। उस पर इन कर्म - लुटेरों का भयङ्कर तक छा गया है जिससे अनन्त शक्तिमान श्रात्मा अपनी शक्ति को भूलकर उनके अधीन हो रहा है। जिस प्रकार एक सिंह का बालक जन्म से ही बकरियों के बच्चों के साथ रहने से अपने सिंहत्व को भूलकर बकरी के बच्चे के समान बन जाता है लेकिन किसी समय सिंह की गर्जना सुनने से वह भी अपने स्वरूप को समझता है और दहाड़ता है। उसी प्रकार जीव भी कर्मों के कारण अपनी शक्ति भूल बैठा है परन्तु वीतराग जिनेश्वर - देव यह सिंहनाद करते हैं कि हे जीवो! तुम अनन्त शक्तिमान् हो ! ये कर्म तुम्हारे ही बनाए हुए हैं, तुम कर्म के बनाये हुए नहीं हो ! ये कर्म तुम्हारे खिलौने हैं । परन्तु तुम इनके मोहक जाल में पड़कर इनके खिलौने बन गए हो !! ये तुम्हारे आधीन थे अब तुम इनके आधीन हो गए हो । हे जीव ! हे भूले हुए जीवो !! अपनी शक्ति को पहचानो, जागो, पुरुषार्थ करो, कर्मों की परतंत्रता की बेड़ियों को काट फेंको और अपने निष्कर्म आत्म-स्वरूप की ज्योति के दर्शन करो ।
जिनेश्वर देव के इस संजीवन उपदेश से कई जीवों ने अपने स्वरूप के दर्शन किये हैं और कर्मों से अपने पुरुषार्थ द्वारा मुक्त हुए हैं।
कर्मों से मुक्त होने के लिए कर्मों के स्वरूप को पहचानना आवश्यक है । कर्मों के स्वरूप को जाने बिना उनका क्षय कैसे किया जा सकता है ? जिस प्रकार किसी शत्रु को पराजित करने या नष्ट करने के लिए उसके स्वरूप, उसकी शक्ति और उसके छिद्रों से जानकारी रखना आवश्यक है। ऐसा किये बिना शत्रु पर विजय प्राप्त करना कठिन है । उसी प्रकार कर्म शत्रुओं को हराने के लिए उनके स्वरूप को जानना, उनकी शक्ति को मापना और बाद में उनको पराजित करने का उपाय करना आवश्यक है । इसीलिए सूत्रकार यहाँ कर्मों का स्वरूप बताते हैं । सूत्रकार ने सूत्र में दो प्रकार के कर्म बताये हैं:(१) अकर्म और (२) मूलकर्म ।
(१) कर्म-कर्म वे हैं जिनकी जड़ में हों और जो आसानी से तोड़ दिये जा सकते हैं। जिस प्रकार मूल (जड़) बिना के लता तृरंगादि आसानी से तोड़े जा सकते हैं उसी प्रकार जो कर्म मूलकर्म This बना आसानी से दूर किये जा सकते हैं जैसे- भवोपग्राही वेदनीय, श्रायुष्य, नाम और गोत्रकर्म ।
(२) मूलकर्म -- जिस प्रकार मूलवाले वृक्ष कठिनाई से उखाड़े जाते हैं उसी प्रकार जो कर्म कठिनाई से दूर किये जाते हैं वे मूलकर्म कहे, आते हैं जैसे—-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और
अन्तराय ।
'अथवा मोहनीय कर्म मूलकर्म है और शेष सातकर्म कर्म हैं। अथवा मिध्यात्व मूलकर्म है और शेष कर्म हैं।
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