________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
शस्त्रपरिज्ञा नाम प्रथम अध्ययन
का
- सप्तमोद्देशक
गत छ उद्देशकों में पृथ्वी, अप, तेज, अग्नि, वनस्पति, और त्रसकाय का वर्णन किया जा चुका है। अब इस उद्देशक में वायुकाय का उल्लेख है । सामान्य क्रम तो पृथ्वी, आप, तेज, वायु, वनस्पति और स इस प्रकार है किन्तु वायु का स्वरूप चक्षुर्गोचर नहीं होने से दुःश्रद्धानरूप है अतः बाद में वर्णन किया ताकि सरलता से समझ में आ सके। दूसरी बात संयमी साधक के लिये भी इसका सर्वथा परिहार अशक्य है क्योंकि हलन चलनादि क्रियाएँ उनको भी करनी ही पड़ती हैं अतः सबसे अन्त में उसका उल्लेख करते हैं:
पहू एजस्स दुर्गछणाए प्रायंकदंसी हियं ति एच्चा, जे अज्झत्थं जा से बहिया जाएइ, जे बहिया जाएइ से अज्झत्थं जाणइ एयं तुलमन्नेसि, इह संतिगया दविया पावकखंति जीविडं (५६)
संस्कृतच्छाया - प्रभुः एजस्य जुगुप्सायाम्, आतङ्कदर्शी अहितमिति ज्ञात्वा, योऽध्यात्मं जा बहिर्जानाति, यो बहिर्जानाति सो ऽध्यात्मं जानाति, एतां तुलामन्वेषयेत्, इह शान्तिगताः द्रविका नावका - क्षन्ति जीवितुम् ।
शब्दार्थ — पहू - समर्थ होता है। एजस्य वायुकाय की । दुगंछखाए - हिंसा से निवृत्ति करने में । यंकदंसी - शारीरिक मानसिक दुःखों को जानने वाला । श्रहियं ति गच्चा = आरम्भ को हित करने वाला जानकर । जे अज्झत्थं जाणइ = जो आभ्यन्तर आत्मा को जानता है । से बहिया जागा वही बाहर की वस्तु का सम्यग़ जानने वाला है । जे बहिया जागइ = जो बाहर की वस्तुओं को भलीभांति जानता है । से अज्झत्थं जाणड़ वही आभ्यन्तर तत्व को जानता है । एयं तुलमन्नेसि - दोनों को एक तुला पर रखे । इह = जैनशासन में । संतिगया - शान्ति में मग्न । 1 दविया संयमी पुरुष | नावकखंति जीवितं असंयमी जीवन की इच्छा नहीं करते हैं ।
भावार्थ - जो शारीरिक और मानसिक पीड़ाओं को भलीभांति जानता है और जो प्रारम्भ ( हिंसा) को अहित करने वाला समझता है वही वायुकाय के समारम्भ से निवृत्त होने में समर्थ होता है क्योंकि जो स्वतः अपनी आत्मा को होने वाले सुख-दुखों को बराबर समझता है वही दूसरे जीवों को होने
For Private And Personal