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म अष्टम अध्ययन -सप्तम उद्देशकः
गत उद्देशक में एकत्व-भावना का निरूपण करके उपधि की लघुता से होने वाली समाधि का वर्णन किया गया है। उपधि की लघुता से निरासक्ति का अभ्यास होता है और यह अभ्यास बढ़ते बढ़ते इस अवस्था पर पहुँच जाता है कि साधक अपने शरीर के प्रति भी ममत्वरहित हो जाता है। अतः वह जब तक देह संयमयात्रा में सहायभूत है तब तक अनासक्त भाव से उसका पालन करता है और जब शरीर इस योग्य नहीं रहता तब वह इङ्गित मरण के द्वारा मृत्यु का हँसते-हँसते स्वागत करता है। उसे देह का ममत्व नहीं होता अतः मृत्यु से उसे किमी तरह का भय नहीं लगता। यह षष्ठ उद्देशक में प्रतिपादित किया गया है। अब इस उदेशक में इससे आगे की उच्च श्रेणी का प्रतिपादन करते हुए विशिष्ट प्रतिमाओं का और पादपोपगमन मरण का निरूपण किया जाता है । प्रारम्भ में विशिष्ट प्रतिमाओं का उल्लेख करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं:
जे भिक्खू अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-चाएमि अहं तणकासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए, दंसमसगफासं अहियासित्तए, एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए हिरिपडिच्छायणं चऽहं नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पइ कडिबंधणं धारित्तए । अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसन्ति, सीयफासा फुसन्ति, तेउकासा फुसन्ति, दंसमसगफासा फुसन्ति, एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लापवियं श्रागममाणे जाव समभिजाणिया।
संस्कृतच्छाया-यो भिनुग्चेलः पर्युषितस्तस्य भिक्षोरेवं भवति-शक्नोम्यहं तृणम्पर्शमध्यामयितुम् , शीतस्पर्शमध्यामयितुम् , तेजःम्पर्श मध्यासयितुम् , दंशमशकस्पर्शमध्याम्यितुमेकतरानभ्यतरान् विरूपरून स्पर्शानध्यामयितुम् , हृीपच्छादनं चाहं न शक्नोम्यध्यासयितुम् . एवं तस्य कल्पने कटिबन्धनं धारयितुम् । अगवा नत्र पराक्रममाणम् भूयोऽचेलं तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति, शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति, तेजःस्पर्शाः स्पृशन्ति, देशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति, एकतरानन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शानधिमहतेऽचेलो लाघवमागपयन यावत् सममिजानीयात् ।
शब्दार्थ-जे भिक्खू–जो साधु । अचेले बखरहित । परिवुसिए रहा हुआ है । तस्स णं भिक्खुस्स-उस साधु का । एवं भवइ=ऐसा अभिप्राय होता है। अहं मैं। तणफास-तृणस्पर्श
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