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() जैसे एकसेर की इंडिया में सवासेर खिचड़ी पकाने से हँडिया फूट जाती है उसी तरह मर्यादा से अधिक आहार करने से ब्रह्मचर्य का भंग हो जाता है। .
(६) जैसे दीन दरिद्र के पास चिन्तामणि नहीं ठहरता उसी प्रकार स्नान, मंजन, शृङ्गार आदि के द्वारा आकर्षक रूप बनाने से ब्रह्मचर्य नहीं ठहरता ।।
सूत्रकार ने इसके पहिले के और इस सूत्र में नव ही वाड़ों का कथन कर दिया है। ब्रह्मचारी को अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा इन वाड़ों के पालन द्वारा अवश्यमेव करनी चाहिए । ब्रह्मचर्य का पालन स्त्री-साधक और पुरुष-साधक दोनों के लिए अनिवार्य है । स्त्री-साधक के लिए पुरुष-शरीर का मोह उसी तरह हानि कारक है जिस तरह पुरुष साधक के लिए स्त्री का मोह । ब्रह्मचर्य साधना का मार्ग अति नाजुक है अतएव अपने मन पर पूरा नियंत्रण रखते हुए बाधक निमित्तों से सदा दूर रहना चाहिए।
बहुत से व्यक्ति ऐसे देखे गये हैं जो ब्रह्मचर्य के पालन के लिए स्त्रियों की निन्दा करते हैं। कई लोग "नारी नरक की खान" "नागिन सी नारी जानी" ऐसा कहते हैं परन्तु यह कथन तो दोनों पर लागू होता है । जिस तरह पुरुष के लिए “नारी नरक की खान है" उसी तरह स्त्री के लिए "नर नरक की खान" है। जिस तरह पुरुष के लिए नारी नागन है उसी तरह स्त्री के लिए पुरुष काला नाग है। वस्तुतः अगर विचारा जाय तो न स्त्रियां बुरी हैं और न पुरुष बुरे हैं । पुरुषों में रहा हुआ स्त्री के प्रति मोह और स्त्रियों में रहा हुआ पुरुषों के प्रति मोह खराब है। पदार्थ स्वयं दूषित नहीं है परन्तु उसके पीछे रही हुई वासना बुरी है। पदार्थ तो मात्र निमित्त हैं। सूत्रकार ने विकारोत्तेजक कथा न करने, विकारोत्तेजक दृश्य न देखने, ममत्व न रखने आदि का कहकर निमित्तों की ओर मन भी न जाने देने का कहकर मन, वचन और कर्म द्वारा निमित्तों से दूर रहने का कहकर आत्माभिमुख बनने का कहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि निमित्तों का असर हुए बिना रहता नहीं है अतएव ब्रह्मचर्य के उपासक को बाह्य बाधक निमित्तों से दूर रहना चाहिए और इस तरह मुनिभाव का आराधक होना चाहिए।
-उपसंहार- इस उद्देशक में स्वच्छन्दवृत्ति का निरोध करके गुरु के अनुशासन में रहने की शिक्षा दी गई है। जो साधक गुरु के अनुशासन को नहीं सह कर स्वच्छन्दाचारी और एकलविहारी हो जाता है वह संयम की वराबर साधना नहीं कर सकता है । गुरुकुल में रहने वाले साधक को भी गुरु-आज्ञा का यथातथ्य पालन करते हुए सतत सावधान रहना चाहिए । सद् गुरुदेव के चरण-शरण में सर्वस्व अर्पण करके अहं. कार का लय करने वाला साधक पूर्ण विकास कर सकता है।
लालसा और वासना दोनों ही चित्तवृत्ति के विकार हैं। विकार और संस्कार एकत्र नहीं रह सकते हैं। भोगों से भोग की तृप्ति नहीं होती लेकिन भोगों को उत्तेजना मिलती है । अतएव विषयों की ओर जाते हुए मन का नियंत्रण करना चाहिए । प्राणान्त होने पर भी अब्रह्म का सेवन कदापि न करना चाहिए । जिसका मन और जिसकी इन्द्रियाँ चञ्चल हैं वह साधक यदि निमित्तों की तरफ असावधानी रखता है तो यह मन और देह दोनों के द्वारा पतन को प्राप्त होता है। अतएव ब्रह्म के बाधक निमित्तों से सदा सावधान रहना चाहिए। स्त्रीमोह आत्मा का घातक है-नरक का द्वार है अतएव वासना और मोह पर विजय प्राप्त करना चाहिए।
इति चतुर्थोद्देशकः
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